मध्यप्रदेश के विकास के सपने तो खूब दिखाये जाते हैं। इन सपनों को अमलीजामा करने के लिए जो प्रयास होना चाहिए वह नहीं हो पाते हैं। यही वजह है कि मध्यप्रदेश की स्थापना के 56 साल बाद भी हम सड़क, बिजली, पानी की समस्या से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। आज भी हर तरफ इन्हीं मुद्दों पर विवाद होते हैं। राजनेता भी यही सवाल बार-बार जनता के सामने खड़ा करते हैं। जनता भी अपने इलाके की सड़के बनाने की गुहार राजनेताओं से करती है। राजनेता भी जनता को सड़कों की मरम्मत और नये निर्माण के सपने दिखाकर वोट हासिल कर लेता है। दुखद पहलू यह है कि न तो जनता नये सपने देख रही है और न ही राजनेता उन्हें साकार करने पर ध्यान देते हैं जिसके चलते प्रदेश लगातार गर्त में जा रहा है। शहरों के विकास की परिकल्पनाएं बुनी गई, लेकिन आज भी हम मध्यप्रदेश में एक भी बड़ा महानगर तैयार करने में कामयाब नहीं हो पाये। आबादी के हिसाब से इंदौर को महानगर कहा जाता है, लेकिन केंद्र सरकार के मापदंड में इंदौर भी महानगर नहीं है। इसके अलावा अन्य जो शहर है उनमें भी बुनियादी संरचनाएं विकसित करने की कोई पहल नहीं हो रही है। इन शहरों में भी बुनियादी सुविधाओं के लिए लोग रोना रोते रहते हैं। गांवों की हालत तो और भी बदतर है। इन सब कारणों की मूल वजह मप्र की जनता में लड़ाकूपन का न होना है। यहां की जनता न तो संघर्ष करना जानती है और न ही अपने अधिकारों के लिए लड़ना आता है, जो जैसा चल रहा है उसी पर अपनी गाड़ी दौड़ती रहती है। नये सपने देखना तो लोगों को आता ही नहीं है। यही वजह है कि मप्र के बाद बने राज्य गुजरात, हरियाणा, पंजाब, गोवा आज देश के नक्शे पर चमक रहे हैं और हम मप्र वासी आज भी पिछड़ापन, गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, अज्ञानता जैसे तमगे लगाकर जीने को विवश है। राजनेताओं का हाल यह है कि न तो वे इसके लिए लड़ रहे हैं और न ही जनता को लड़ने के लिए उदेलित कर रहे हैं। राजनेता को तो पांच साल में एक बार वोट चाहिए उसके बाद उनका कोई वास्ता नहीं। जनता संघर्ष करें या न करें पर मप्र को अगर देश के नक्शे पर चमकाना है, तो जनता को संघर्ष का रास्ता अपनाना ही होगा।
जय हो मध्यप्रदेश की
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