मंगलवार, 4 सितंबर 2012

विकास का पैमाना और सरकार की पहल बनी विवाद की जड़

         विकास पर इन दिनों खूब बहस हो रही है, अर्थशास्‍त्री,समाजशास्‍त्री और स्‍वयंसेवी संगठनों के अपने अपने पैमाने विकास को लेकर है पर जो विकास जमीन पर उतर रहा है उस पर हर किसी को आपत्त्तियां हो रही है हमारे अभिन्‍न साथी और सम्‍मानीय  राजेंद्र कोठारी भी दिन भर राज्‍य के विकास पर काफी हाउस में बहस करतें थकते नहीं है,तो राजनीतिक दलों का विकास को लेकर एजेंडा अलग ही है, उस पर तो अमल होता है, आम आदमी भी बहस में शामिल होता है, यह सच है कि विकास को जो पैमाना तय किया गया है उस राज्‍य की सरकार कहीं खरी नहीं उतर रही है पर जहां मानव का विकास हो रहा है उसमें विकास समर्थक खुश नहीं होंगे बल्कि  उनकी नजर में समाज का विकास होना सार्थक है, सेवानिवत्‍त आईएएस अफसर और लंबे समय से आदिवासियों के बीच सक्रिय ब्रहदेव शर्मा तो कहते है कि विकास का अर्थ ही राज्‍य सरकार समझ नहीं रही है इस वजह से समस्‍याएं पैदा हो रही है,राज्‍य सरकार का जोर समाज को जोडना तो है पर विकास का पैमाना उनक हटकर है, मप्र सरकार बेटी बचाओ अभियान, लाडली लक्ष्‍मी योजना, कन्‍यादान और अब तीर्थदर्शन योजना को विकास का पैमाना मानेगी तो कैसे सहमत हुआ है,यहां पर विकास को लेकर विवाद हो सकता है,शर्मा कहते है कि स्‍कूलों में भोजन कराना, पैसा बांटना, सडकों का निर्माण को विकास नहीं माना जा सकता है विकास को लेकर बहस हमेशा होती रहेगी, इस पर विवाद भी कायम रहेगे, लोगों का हल्‍ला मचाना जारी रहेगा और सरकार अपने हिसाब से काम करती रहेगी अब यह समाज को देखना है कि किस विकास को स्‍वीकार किया जाए और किसे अस्‍वीकार कर दिया जाए, आज कल विरोध के तेवर भी अपने आप कम हो रहे है लोग विरोध् करने से घबराने लगे है फिर बहस कैसे आगे बढ पाएगी इसके बाद ही समाज में एक तबका जिंदा है जो कि बहस को जिंदा बनाए रखे हुए है, विकास में पूरी तरह से पिछडे आदिवासियों के विकास को लेकर और विवाद हो रहा है स्‍वयंसेवी संगठनों का मानना है जहां नक्‍सलवाद हावी है वहा तो विकास हो ही नहीं रहा है, आदिवासियों की जमीन छीनने से भी विकास नहीं होगा बल्कि आदिवासियों को बेदखल करके कारखाने बन जाएगे पर उससे किसका भला होगा, इसलिए विकास पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है।

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