सोमवार, 3 दिसंबर 2012

भोपाल गैसकांड - 28 वर्ष का सफर : थम नहीं रहे आंसू


         गैस त्रासदी के 28 साल बाद भी भोपाल के वांशिंदों के आंसू थम नहीं रहे हैं। पीड़ाएं अनंत हैं। न तो कहीं सुनवाई हो रही है और न ही कोई मरहम लगाने को तैयार है। हर तरफ से दर्द ही दर्द मिल रहा है। त्रासदी के बाद भोपाल की आवो-हवा में गैस पीडि़तों को लेकर आंदोलन और गुस्‍सा हर साल त्‍यौंहार की भांति दो से तीन दिसंबर तक जहां-तहां सुनाई देता है, लेकिन साल भर इस पर कोई चर्चा तक नहीं करता है। यह स्थिति त्रासदी के 25 साल बाद ज्‍यादा बनी है। केंद्र और राज्‍य सरकार को लगता है कि उन्‍होंने पीडि़तों के लिए पुनर्वास और इलाज की पर्याप्‍त व्‍यवस्‍था कर दी है पर परिस्थितियां इसके विपरीत है। न तो पीडि़तों के परिवारों को पुनर्वास मिला है और न ही अस्‍पतालों में दर्द सह रहे पीडि़तों को दवाईयां नसीब हो रही हैं। पुनर्वास के नाम पर करोड़ों रूपया खर्च किया जा चुका है, लेकिन सिर्फ बड़े-बड़े भवन विभिन्‍न क्षेत्रों में नजर आते हैं, लेकिन इन क्षेत्रों में पुनर्वास के नाम पर 500 लोगों को भी रोजगार नसीब तक नहीं हुआ है। यही हाल इलाज का है। अस्‍पताल तो दर्जनों हैं, पर उनमें इलाज करने वाले चिकित्‍सक नहीं हैं, उपकरण चल नहीं रहे हैं, तो चैकअप कैसे होगा। दवाईयां तो मिल ही नहीं रही हैं। गैस पीडि़त इंसाफ के लिए संघर्ष कर-करके थक गया है। अभी तक यूका के मालिक पर कोई कार्यवाही नहीं हुई है। 
       मुआवजा को लेकर सवाल तेजी से उठते रहे हैं। अदालतों में इस पर बहस लगातार जारी है। जहरीली गैस का असर लोगों में पीढि़यो तक रहेगा। यूका कारखाने से रिसी मिथाइल आइसोसाइनाइट का असर तो बरकरार है ही। अभी वर्तमान में भी यूका के आसपास भूजल में जहरीला रसायन, 300 मैट्रिक टन कचरा पड़ा हुआ है। इसे खत्‍म करने के लिए पिछले दस सालों से बहस चल रही है पर कोई परिणाम सामने नहीं आया है। राज्‍य और केंद्र के बीच इस कचरे को लेकर बहस छिड़ी हुई है कि आखिरकार कचरे को कहां दफनाया जाये। इसका बेहतर विकल्‍प आज तक नहीं खोजा जा सका है। पीडि़तों के दर्द कम नहीं हो रहे हैं। हर साल दर्द में इजाफा ही हो रहा है। इस हादसे में 15 हजार से ज्‍यादा मौते हुई, छह लाख से ज्‍यादा लोग बीमार हैं। इंसाफ के लिए लगातार लड़ाई जारी है। मुआवजा वितरित हो चुका है, लेकिन अन्‍य सुविधाओं के लिए गैस पीडि़त लगातार संघर्ष कर रहे हैं। केंद्र और राज्‍य सरकार की अनदेखी होने लगी है। ऐसी स्थिति में जनसंगठनों की मारक क्षमता भी दिनों दिन कमजोर हो रही है। कभी-कभार आंदोलन हो रहे है। इन आंदोलनों के बाद भी गैस पीडि़तों का दर्द कम नहीं हुआ है, बल्कि वह लगातार बढ़ ही रहा है। इस दर्द पर मरहम कौन लगायेगा यह सवाल तो भविष्‍य के गर्भ में छुपा हुआ है। 
                                       ''जय हो मप्र की''

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