रविवार, 27 नवंबर 2011

घुंघरू की गूंज पर चलती जिंदगी, बेडनियां शहरों में भी पहुंची

              
            घुंघरू की गूंज और उस पर थिरकते पैर उनकी जिंदगी के अंग बन गये हैं। शाम ढलते ही घुंघरू बजने लगते हैं ढोल की थाप पर वह अपनी कला-कुशलता दिखाकर लोगों का मन बहलाती हैं यह सिलसिला मध्‍यप्रदेश में वर्षो से चला आ रहा है और थमने का नाम नहीं ले रहा है बीते दो दशक में कई सरकारों ने लुभावनी योजनाएं बनाई,लेकिन फिर भी बेडनियां जस की तस जीवन-बसर करने के लिए विवश हैं। पराई खुशियों पर वह थिरकती है और अब तो महानगरों और शहरों में बे‍डनियों ने अपना कारोबार फैला लिया है।
            सामाजिक विषमताओं का अंबार मध्‍यप्रदेश में है वही  राज्‍य सरकार बेटी बचाओ अभियान चला रही है,तो दूसरी तरफ कई घरो की बेटियां नाच-गाना कर अपने परिवार का भरण-पोषण कर रही है। राज्‍य के कई हिस्‍सों में परंपरागत पीढियों से लोक ऩत्‍य 'राई 'तथा शादी विवाह एवं मेलो में बेडनियां नाच गाना करके अपना जीवन गुजर बसर कर रही हैं। अब धीरे-धीरे महानगरों में रात्रिकालीन होने वाले क्रिकेट प्रतियोगिताओं में भी बेडनियां चेयर लीडर में भी प्रवेश कर गई है, जो कि अत्‍याधुनिक पोशकों में नाचती कूदती नजर आ रही है,इसके अलावा पर्दे के पीछे देह व्‍यापार भी पनप रहा है। मध्‍यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में बडी संख्‍या में बेडियां जाति के लोग रहते है,इस समाज की महिलाएं बेडनियां कहलाती हैं,जो कि सदियों से सामाजिक उपेक्षा, आर्थिक विपन्‍नता और देह शोषण को अपनी नियति मानती रही हैं। बेडनियों का घर परिवार इनके नाचने-गाने एवं वैश्‍याव़त्ति पर ही चलता है। बुंदेलखंड में वर्षों से जागीरदारों-जमीदारों के घरों में कोई भी उत्‍सव,त्‍यौहार बे‍डनियों के ठुमकों के बिना अंधूरे माने जाते रहे हैं,लोक ऩत्‍य राई पर जब वे झूमती हैं,तो लोग आंख झपकना तक भूल जाते हैं। इसके अलावा विदिशा,रायसेन, राजगढ,जिले में भी बेडनियों के गांव हैं। अशोकनगर जिले के करीला गांव में तो रंग-पंचमी के दिन रात भर घुंघरू की झंकार और ढोल की थाप पर नाचती हैं। अब धीरे-धीरे बे‍डनियां महानगरों में राई ऩत्‍य के साथ-साथ अन्‍य धंधों में भी शामिल होने लगी हैं। महिला एवं बाल विकास विभाग ने जवाली नाम से एक योजना चलाई हुई है,लेकिन इस योजना से किसी भी महिला का उद्वार नहीं हुआ है,बल्कि यह एक व्‍यापार में बदल रहा है,जो कि शहरों में कॉलगर्ल के नाम से जाना जाता है पर बेडनियां भी गांव-गांव में आज भी अपने अस्तित्‍व के लिए जूझ भी रही हैं। दुखद पहलू यह है कि बुंदेलखंड के राजनेताओं ने कभी भी इस बीमारी को जड से खत्‍म करने की पहल नहीं की और न ही इस कलंक को समाप्‍त कर बेडनियों को मुख्‍य धारा में जोडा गया वे आज भी अपनी गति से घुंघरूओं पर नाच रही हैं।

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