विविध धाराओं में बहने वाला राज्य 'मध्यप्रदेश' में राजनेताओं की लंबी फौज है। हर पार्टी में नेताओं की भरमार है। न तो नेता अपने अधिकारों के लिए लड़ते हैं और न ही राज्य को ऊंचाईयों पर ले जाने के लिए उनमें ललक नजर आती है। यहां तक कि राजनीति भी डर-डरकर करते हैं। न तो नेतृत्व को चुनौती दे पाते हैं और न ही नेतृत्व के सामने खड़े हो पाते हैं, जो नेता हिम्मत भी दिखाते हैं वह थोड़े दिन में पस्त हो जाते हैं। यही वजह है कि मध्यप्रदेश की कर्म भूमि में पले-बड़े नेताओं में जोश और उत्साह तो गायब ही रहता है। उंगलियों पर ही ऐसे बिरले नेता गिने जा सकते है जिन्होंने अपनी पहचान भोपाल से लेकर दिल्ली तक बनाई है। इसके बाद भी राज्य के अधिकारों को लेकर लड़ने वाले नेताओं का तो आज भी टोंटा लगता है जिससे लगता है कि राज्य में राजनेताओं की तो फौज ही फौज है पर नेतृत्व के नाम पर बौने साबित हो रहे हैं। बिरले ही नेता हैं जिन्होंने मध्यप्रदेश् से अपनी राजनीति शुरू की और फिर देश के विभिन्न राज्यों में जाकर डंका बजाया है। इसमें सबसे अव्वल नाम एनडीए संयोजक शरद यादव का है उसके बाद अर्जुन सिंह और फिर उमा भारती हैं एवं मध्यप्रदेश में जन्मी वंसुधरा राजे सिंधिया तो राजस्थान की मुख्यमंत्री बन चुकी है और वह भी राष्ट्रीय राजनीति में अपना जलवा बिखेर रही हैं। समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता शरद यादव ने तो तीन-चार राज्यों से अपनी मौजूदगी दर्ज कर राष्ट्रीय नेता बन गये हैं, जबकि लगातार दो बार मुख्यमंत्री रहे अर्जुन सिंह एक बार ही दिल्ली से लोकसभा चुनाव जीते हैं। ऐसा ही साध्वी से मुख्यमंत्री बनी सुश्री उमा भारती भी वर्ष 2011 में उत्तरप्रदेश विधानसभा में विधायक चुनी गई हैं।
इन नेताओं के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाले नेताओं की भी लंबी फेहरिस्त है जिसमें डॉ0 शंकरदयाल शर्मा, अटल बिहारी वाजपेयी, श्रीमती विजयराजे सिंधिया, पंडित रविशंकर शुक्ल, डीपी मिश्रा, गोविंद नारायण सिंह, अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह, उमा भारती, शिवराज सिंह चौहान, शरद यादव, श्यामाचरण शुक्ल, विद्याचरण शुक्ल, सुंदरलाल पटवा, वीरेंद्र कुमार सकलेचा, कमलनाथ, माधवराव सिंधिया, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी, कुशाभाऊ ठाकरे, होमीदाजी आदि शामिल हैं। वर्तमान में दिग्विजय सिंह राष्ट्रीय राजनीति में छाये हुए हैं, तो उमा भारती भी पीछे-पीछे चल रही हैं। वही मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी कार्यशैली की वजह से राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश कर रहे हैं। उनकी धमक दिल्ली तक में सुनाई दे रही है। भाजपा नेता नरेंद्र सिंह तोमर भी अपने स्तर पर प्रयास कर रहे हैं तथा विदिशा संसदीय क्षेत्र से सांसद सुषमा स्वराज लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं।
मध्यप्रदेश की राजनीति हमेशा से दो दलों के बीच ही सिमटी रही है। यहां पर कांग्रेस और भाजपा के बीच राजनीतिक युद्व चलता रहा है। यह जरूर है कि भाजपा के चेहरे बदलते रहे हैं, कभी हिन्दू महासभा, तो फिर जनसंघ तो कभी जनता पार्टी और अब भाजपा के बैनर तले लड़ाई लड़ी जा रही है। 56 साल के सफर में राजनैतिक दलों में भारी बदलाव साफ तौर पर देखा जा रहा है। अलग-अलग क्षेत्रों में नेताओं ने अपनी पहुंच बनाई है, लेकिन प्रदेश को लेकर लड़ने वाले नेताओं की कमी साफ तौर पर झलकती है। यहां की राजनीति में एक त्रिकोण समाजवाद भी है। इस विचारधारा से प्रभावित नेताओं ने अपना एक अलग मुकाम बनाया है। शरद यादव आज राष्ट्रीय राजनीति में छाये हुए हैं, तो रघु ठाकुर अभी भी प्रदेश की राजनीति में कदमताल कर रहे हैं। धीरे-धीरे समाजवादी विचारधारा के नेताओं ने अपने आपको भाजपा और कांग्रेस से जोड़ लिया, क्योंकि उन्हें अपने अस्तित्व को बचाने के लिए दलों की जरूरत थी। अन्य राज्यों की तरह राज्य की सियासत भी जातिवादी रोग से पीडि़त हो गई है। यहां भी जातियों के बल पर राजनीति की जाने लगी है। वहीं धर्म का भी धीरे-धीरे घालमेल हो रहा है।
मध्यप्रदेश का इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि यहां कि राजनीति छोटे-छोटे इलाकों में सिमट कर रह गई है। कोई मालवा, महाकौशल में अपने दांव-पेंच खेल रहा है, तो किसी ने बुंदेलखंड, विंध्य और मध्य भारत में अपने-अपने दांव लगा छोड़े हैं। इससे प्रदेश का नेतृत्व उभर नहीं पा रहा है। यही स्थिति कांग्रेस और भाजपा की बनी हुई है। अब यहां पर धीरे-धीरे बहुजन समाज पार्टी ने भी पैर जमाना शुरू कर दिये हैं। बहुजन समाज पार्टी बड़े स्तर पर अपने नेता तैयार नहीं कर पाई है, लेकिन सत्ता में भागीदार बनने के सपने जरूर देख रही है। इस प्रदेश में अरसे से ठाकुर, ब्राम्हण राजनेताओं का वर्चस्व रहा है, पर भाजपा ने यह मिथक तोड़ दिया है। वर्ष 2003 से भाजपा में पिछड़े वर्ग के नेता को मुख्यमंत्री की कमान सौंपी है और शुरूआत में उमाभारती फिर बाबूलाल गौर और अब शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने हुए हैं, जबकि अभी भी कांग्रेस आदिवासी और ठाकुर राजनीति में उलझी हुई है, जो इससे बाहर निकलने को तैयार नहीं है, जबकि भाजपा ने अपना दायरा फैला दिया है। इसके चलते भाजपा तो अपने-अपने कुनवा में विस्तार कर रही है, लेकिन कांग्रेस अभी भी मतदाताओं का मिजाज समझ रही है। अगर यही हाल रहा तो कांग्रेस के लिए भविष्य में बड़ा संकट खड़ा हो जायेगा। यूं तो मध्यप्रदेश में तीसरी ताकत भी जोर अजमाईश कर रही है, लेकिन उसकी कोई आधार भूमि नहीं है जिसके चलते सिर्फ सपने देखे जा रहे हैं परिणाम मुश्किल से ही मिल पायेंगे। कुल मिलाकर मध्यप्रदेश की राजनीति में जो ठहराव आ गया है उसे तोड़ने के लिए राजनेताओं को स्वयं पहल करनी होगी। इसके अलावा राजनीतिक दलों को भी इस बात पर गौर करना होगा कि उनका नेतृत्व न सिर्फ प्रदेश की सीमाओं से बाहर निकले, बल्कि दिल्ली में भी मध्यप्रदेश के अधिकारों के लिए केंद्र सरकार से टकरा सकें। फिलहाल तो केंद्र से टकराने की बात होती है, तो अपने राजनीतिक गुणा-भाग के हिसाब से राजनेता टकराते हैं, लेकिन अभी मध्यप्रदेश के उन राजनेताओं को खोजना पड़ेगा, जो कि रेल सुविधाओं को बढ़ाने के लिए लड़ते नजर आये और 56 साल में जहां रेल नहीं पहुंची है वहां के लिए सरकार से भिड़ जाये, इसके अलावा राष्ट्रीय राजमार्ग, किसानों को उनकी उचित कीमत दिलाना, परिवहन सुविधाओं का विकास, प्रशासनिक अमले में इजाफा, उद्योगों के लिए रास्ते खोलने सहित आदि बिन्दुओं को लेकर नेता जब सीमाओं से पार जाकर लड़ने लगेंगे, तो फिर मप्र के लिए वह दिन अपने आप में सुनहरे अवसर होंगे, क्योंकि उनके बीच का राजनेता प्रदेश के हकों के लिए केंद्र में ताल ठोक रहा होगा। निश्चित रूप से अभी इस दिशा में अंधेरा नजर आता है, लेकिन वह दिन दूर नहीं है, जब कोई न कोई राजनेता मध्यप्रदेश के लिए लड़ता दिल्ली में नजर आयेगा।
''जय हो मप्र की''
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