मध्यप्रदेश व दलित वर्ग : स्थापना दिवस 04 दिन शेष
हर व्यक्ति की तमन्ना होती है कि समाज में उसका मान-सम्मान बढ़े, लोग महत्व दें, इसके लिए वह समाज के मापदंडों पर उतरने की कोशिश भी करता है। मध्यप्रदेश में एक वर्ग ऐसा भी है, जो समाज के मापदंडों पर उतरने के लिए लाख प्रयास कर रहा है, फिर भी उसके साथ भेदभाव, उपेक्षा, दरकिनार, अपमानित करने का व्यवहार किया जा रहा है। यह सब हो रहा है राज्य के दलित समाज के साथ, जिसका अपना एक बड़ा महत्व है। प्रदेश में 34 अनुसूचित जाति की विधानसभा सीटें और 03 लोकसभा सीटें है जिन पर दलित वर्ग निर्णायक भूमिका अदा करता है फिर भी उनके साथ लगातार भेदभाव और पक्षपात किया जा रहा है। राज्य में ऐसा कोई इलाका नहीं मिलेगा, जहां पर दलित वर्ग न मिले, लेकिन इसके बाद भी दलित वर्ग के साथ नाइंसाफी लगातार हो रही है। ऐसा नहीं है कि राजनीतिक दल दलित वर्ग के विकास के लिए चिंतित न हों। कांग्रेस और भाजपा समय-समय पर दलित वर्ग के उत्थान में कोई कौर-कसर नहीं छोड़ रही है। वर्ष 2001-02 में राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने सोशल इंजीनियरिंग के जरिये दलित वर्ग की चिंता करते हुए दलित एजेंडा तैयार करवाया था इस एजेंडे को तैयार करवाने में देशभर के विशेषज्ञों को बुलाकर उनकी राय ली गई थी। इसके बाद ही कांग्रेस सरकार ने दलित वर्ग को खेती करने के लिए चरनोई जमीन आवंटित की और व्यापार करने के लिए लघु-उद्योग निगम में दलित वर्ग को विशेष छूट दी गई। इसके चलते चरनोई भूमि के आवंटन को लेकर मप्र की राजनीति बेहद गर्म हो गई। वर्ष 2002 में राज्य का ऐसा कोई हिस्सा नहीं बचा था, जहां पर दलित वर्ग पर हमला न हुआ हो। जमीनों के आवंटन को लेकर दलितों ने बेहद एड़ी चोटी का जोर लगाया, लेकिन दबंगों के सामने उन्हें झुकना पड़ा और अंतत: वर्ष 2003 में कांग्रेस सरकार का पतन हो गया। इसके बाद भाजपा न सत्ता की कमान संभाली, लेकिन उन्होंने कांग्रेस का चरनोई वाला मामला फाइलों से बाहर ही नहीं निकलने दिया। इसके अलावा भाजपा और उनकी सरकार के मुखिया मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दलित वर्ग को प्रभावित करने की कोई कौर कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने सितंबर, 2012 में सांची में राष्ट्रीय स्तर का बौद्व विवि शुरू कराने की पहल करा दी। इससे पहले अनुसूचित जाति मंत्रालय बन चुका है। दलितों को प्रभावित करने के लिए समय-समय पर कोई मौका नहीं छोड़ा है। हर साल वे संविधान निर्माता डॉ0 भीमराव अम्बेडकर के जन्म स्थल महू के भव्य कार्यक्रम में हिस्सा लेते हैं। इसके साथ ही महू में सेना की जमीन पर बाबा साहब का स्मरक बनाने के लिए केंद्र सरकार को पत्र लिख चुके हैं। दिल्ली में डॉ0 अम्बेडकर की परिनिर्वाण स्थल पर स्मरक बनाने की इच्छा जाहिर की है। संत रविदास स्मृति पुरस्कार शुरू किया है, तो संत रविदास के नाम पर चर्म निगम बनाने का एलान सरकार कर चुकी है, लेकिन जमीन पर उसका कोई अता-पता नहीं है। इसके साथ ही छात्र-छात्राओं को आगे बढ़ाने के लिए हरसंभव प्रयास हो रहे हैं। इन सबके बाद भी मप्र में क्या वजह है कि दलित वर्ग पर लगातार अत्याचार होते हैं। फिर भी राजनीतिक दल क्यों चुप्पी साध जाते हैं। न तो वे कोई हल्ला मचाते हैं और न ही उनके अधिकारों के लिए लड़ते हैं। वोट के गुणा-भाग में जरूर दलित वर्ग के नेता दिल्ली में बड़े नेताओं के सामने अपना अधिकार जमाते हैं, लेकिन जमीनी हकीकत बिल्कुल अलग है। दलितों के नाम पर बड़े नेताओं से अपने अधिकार मांगते हैं और मप्र में हो रहे अत्याचारों के खिलाफ अखबारों में बयान तक नहीं देते हैं। इससे क्या यह समझा जाये कि दलित नेता अपना पॉवर बढ़ाने के लिए तो हर काम करते हैं, लेकिन जब दलित के साथ खड़ा होना होता है, तो वे चुप्पी साध जाते हैं, क्या यही है उनका दलित प्रेम। यह एक बड़ा गंभीर सवाल है कि आखिरकार दलित नेता अपने वर्ग के लिए क्यों नहीं लड़ते है और न ही उनकी गूंज भोपाल से लेकर दिल्ली तक सुनाई देती है।
दलित वर्ग पर हमलों की बानगी :
मध्यप्रदेश में सप्ताह भर में ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता है, जब दलित वर्ग की उपेक्षा, अपमानित और उनके साथ छुआ-छूत का व्यवहार तथा दबंगों द्वारा उन पर हमले की घटनाएं मीडिया की सुर्खिया न बनती हों। कभी दलित नौजवानों को घोड़े पर चढ़कर बारात निकालने से रोका जाता है, तो कहीं बुजुर्ग महिला को मंदिर में पूजा करने से दबंग रोक देते हैं। 25 अक्टूबर 2012 को प्रदेश में दलित लोगों को दुर्गा उत्सव की झांकी को विसर्जन करने से रोका गया, जिस पर तनाव पैदा हुआ। दलित वर्ग पर हमले कर उन्हें घायल करने की घटनाएं तो आम बात हो गई है। इसके लिए भाजपा और कांग्रेस तो जिम्मेदार है ही, मगर सबसे ज्यादा दलितों को लेकर हल्ला मचाने वाली बहुजन समाज पार्टी तो बिल्कुल ही शांत बैठी रहती है। उसके नेता मप्र में दलित अत्याचार पर अपनी जुबान तक नहीं खोलती। कांग्रेस और भाजपा के लोग तो अपने मुंह पर लगा ताला खोल ही देती है, लेकिन बसपा कभी भी कोई बात नहीं करती है, तब बसपा का दलित प्रेम समझ से परे होता है। कांग्रेस में दलित नेता सज्जन सिंह वर्मा और प्रेमचंद्र गुड्डू तथा राधाकिशन मालवीय जाने पहचाने चेहरे हैं, लेकिन यह भी दलित राजनीति नहीं करते हैं। इसी प्रकार भाजपा में थवर चंद्र गेहलोत, डॉ0 गौरीशंकर शेजवार, हरिशंकर खटीक, सत्यनारायण जटिया आदि हैं। इन्हें भी दलितों की चिंता कभी-कभार ही सताती है। यही वजह है कि मप्र में दलित समाज लगातार अपने आपको अलग-थलग पाता है।
''जय हो मप्र की''
दलित वर्ग पर हमलों की बानगी :
मध्यप्रदेश में सप्ताह भर में ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता है, जब दलित वर्ग की उपेक्षा, अपमानित और उनके साथ छुआ-छूत का व्यवहार तथा दबंगों द्वारा उन पर हमले की घटनाएं मीडिया की सुर्खिया न बनती हों। कभी दलित नौजवानों को घोड़े पर चढ़कर बारात निकालने से रोका जाता है, तो कहीं बुजुर्ग महिला को मंदिर में पूजा करने से दबंग रोक देते हैं। 25 अक्टूबर 2012 को प्रदेश में दलित लोगों को दुर्गा उत्सव की झांकी को विसर्जन करने से रोका गया, जिस पर तनाव पैदा हुआ। दलित वर्ग पर हमले कर उन्हें घायल करने की घटनाएं तो आम बात हो गई है। इसके लिए भाजपा और कांग्रेस तो जिम्मेदार है ही, मगर सबसे ज्यादा दलितों को लेकर हल्ला मचाने वाली बहुजन समाज पार्टी तो बिल्कुल ही शांत बैठी रहती है। उसके नेता मप्र में दलित अत्याचार पर अपनी जुबान तक नहीं खोलती। कांग्रेस और भाजपा के लोग तो अपने मुंह पर लगा ताला खोल ही देती है, लेकिन बसपा कभी भी कोई बात नहीं करती है, तब बसपा का दलित प्रेम समझ से परे होता है। कांग्रेस में दलित नेता सज्जन सिंह वर्मा और प्रेमचंद्र गुड्डू तथा राधाकिशन मालवीय जाने पहचाने चेहरे हैं, लेकिन यह भी दलित राजनीति नहीं करते हैं। इसी प्रकार भाजपा में थवर चंद्र गेहलोत, डॉ0 गौरीशंकर शेजवार, हरिशंकर खटीक, सत्यनारायण जटिया आदि हैं। इन्हें भी दलितों की चिंता कभी-कभार ही सताती है। यही वजह है कि मप्र में दलित समाज लगातार अपने आपको अलग-थलग पाता है।
''जय हो मप्र की''
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