बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

राष्‍ट्रपति, पीएम और सीएम तो जिलों से मिले पर फिर भी इलाकों की शक्‍ल नहीं बदली



 मध्‍यप्रदेश व जिलों की कमजोर ताकत : स्‍थापना दिवस में 07 दिन शेष

          मध्‍यप्रदेश की कर्म भूमि में रच-बस गये राजनेताओं ने न सिर्फ देश में राज्‍य का नाम रोशन किया, बल्कि प्रदेश में तो उन्‍होंने अपना एक अलग मुकाम बनाया। लगातार प्रगति के पथ पद पर कदमताल कर रहे राज्‍य के राजनेताओं ने दिल्‍ली में अपनी मौजूदगी न सिर्फ दर्ज की है, बल्कि अपना सिक्‍का भी चलाया है। इस प्रदेश से राष्‍ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्‍यमंत्री जैसे बड़े पदों पर छोटे-छोटे जिलों से आये राजनेता पहुंचे हैं साथ ही जिले का नाम तो ऊंचा किया ही है पर उन जिलों में विकास की जो अलख जगनी थी उसमें कहीं न कहीं कमी वैसी रह गई। 
यही वजह है कि आज भी विभिन्‍न जिले बुनियादी तकलीफों से दिन प्रतिदिन रूबरू हो रहे हैं। इसके चलते यह सवाल बार-बार दिल और दिमाग में आता है कि आखिरकार छोटे-छोटे जिलों से अपना राजनीतिक सफर शुरू करने वाले राजनेताओं ने ऊंचाईयां तो आकाश तक छू ली, लेकिन उसके बाद अपनी कर्मभूमि को ही भूल गये। मप्र के लिए गौरव का विषय है कि यहां से राष्‍ट्रपति, प्रधानमंत्री के रूप में राजनेता बने हैं। पूर्व राष्‍ट्रपति डॉ0शंकर दयाल शर्मा ने भोपाल में ही अपनी राजनीति शुरू की और फिर देश के राष्‍ट्रपति बने। इसी प्रकार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कर्मभूमि ग्‍वालियर रही और वे भी प्रधानमंत्री बने। यह जरूर है कि श्री वाजपेयी ने अपने आपको कभी मप्र का राजनेता नहीं माना, बल्कि वे हमेशा अपने आपको उत्‍तरप्रदेश का नेता मानते रहे हैं पर यह भी कड़वी सच्‍चाई है कि श्री वाजपेयी ने वर्ष 1984 में ग्‍वालियर से लोकसभा का चुनाव लड़ा, तब वे पराजित हो गये थे, लेकिन 1991 में विदिशा से लोकसभा चुनाव में जीत गये थे।
ग्‍वालियर में श्री वाजपेयी ने अपना युवा काल का लंबा समय बिताया है। वही दूसरी ओर पूर्व राष्‍ट्रपति डॉ0 शंकर दयाल शर्मा का राजनीतिक जीवन बड़ा पाक-साफ रहा है, उन्‍होंने भी 1977 में भोपाल संसदीय क्षेत्र से हार का मुंह देखा था, जबकि वे उदयपुरा विधानसभा सीट से कई बार विधायक बने हैं। डॉ0 शर्मा तो कांग्रेस के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष रहे हैं। इन दो बड़ी विभूतियों ने अपने जिलों के लिए कोई बड़ा उल्‍लेखनीय काम नहीं किया है बस नेतृत्‍व जरूर ताकतवर दिया है पर डॉ0 शर्मा के फॉलोअर तो सीमित संख्‍या में है, जबकि पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी के फॉलोअर की संख्‍या लंबी है। उनके भाषणों की नकल आज भी मप्र भाजपा से जुड़े नेता करते हैं। वाजपेयी के भाषण की स्‍टाइल को कई नेताओं ने अपना लिया है। मप्र की बार-बार चिंता करने वाले समाजसेवी राजेंद्र कोठारी तो साफ तौर पर कहते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का मप्र के लिए कोई योगदान नहीं है, यहां तक कि उन्‍होंने प्रधानमंत्रित्‍व कार्यकाल में भी कोई उल्‍लेखनीय तोहफा राज्‍य के वांशिंदों को नहीं दिया है।हमेशा राज्‍य के साथ सिर्फ दिखावा किया, लेकिन जनता के हित में कोई खास काम नहीं किया। इसी प्रकार के स्‍वर पूर्व राष्‍ट्रपति शर्मा के बारे में भी जहां-तहां सुनाई पड़ जाते हैं, लेकिन उन्‍होंने भोपाल को मेडिकल कॉलेज और भेल कारखाना दिलाने में अहम रोल किया है। इसके साथ ही उदयपुरा विधानसभा क्षेत्र में भी स्‍कूल और अस्‍पताल खुलवाये हैं। 
प्रदेश को मुख्‍यमंत्री फिर भी निराशा : 


       मप्र में 55 साल के सफर में एक दर्जन से  अधिक राजनेता राज्‍य के मुख्‍यमंत्री बन चुके हैं। इन मुख्‍यमंत्रियों के फेहरिस्‍त देखी जाये, तो इन मुख्‍यमंत्रियों ने प्रदेश हित में तो कई उल्‍लेखनीय निर्णय लिये, जो कि मील का पत्‍थर साबित हुए, यहां तक कि मुख्‍यमंत्री के सफर में ही उन्‍होंने देश में अपना नाम भी कमाया। इस कड़ी में उल्‍लेखनीय नामों में डीपी मिश्रा, श्‍यामाचरण शुक्‍ल, गोविंद नारायण सिंह, प्रकाश चंद्र सेठी, अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह, सुंदरलाल पटवा, बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान शामिल हैं। डीपी मिश्रा और अर्जुन सिंह को कांग्रेस की राजनीति में आधुनिक चाणक्‍य की संज्ञा से राजनीति में नबाजा गया। सिंह ने अपने मुख्‍यमंत्रित्‍व कार्यकाल में राज्‍य को ढेरों सौगातें दी। उन्‍होंने कई उल्‍लेखनीय काम किये हैं। सांस्‍कृतिक गतिविधियों का सिलसिला अर्जुन सिंह के मुख्‍यमंत्रित्‍व कार्यकाल में शुरू हुआ और भारत भवन का जन्‍म हुआ। गरीबों और पिछड़े वर्गों के लिए झुग्‍गी-झोपड़ी का मालिकाना हक, तेंदू पत्‍ता बोनस सहित आदि कार्य किये हैं, लेकिन वे भी सीधी और रीवा को विकास की मुख्‍यधारा में लाने में कहीं न कहीं पिछड़ ही गये। इसी प्रकार वर्तमान में कांग्रेस की राजनीति में विरोधियों को अपने बयानों से घायल करने वाले दिग्विजय सिंह ने भी 1993 से 2003 के बीच मप्र के मुख्‍यमंत्री रहे। इस दौरान पंचायती राज को नई ताकत दी पर राजगढ़ जिले के विकास में कोई खास काम नहीं कर पाये। आज भी यह जिला बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहा है न तो रोजगार मिल रहे हैं और न ही उद्योग धंधे खुल पाये हैं। 
भाजपा की तरफ से भी पांच मुख्‍यमंत्री बन चुके हैं जिसमें सुंदरलाल पटवा, कैलाश जोशी, उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान शामिल है। चौहान का वर्तमान कार्यकाल उल्‍लेखनीय कामों से भरा पड़ा है। उन्‍होंने अपने मुख्‍यमंत्रित्‍व कार्यकाल में सामाजिक संरचना के रूप में जो काम किया है वह अपने आप में उल्‍लेखनीय है जिसमें कन्‍यादान, लाडली लक्ष्‍मी, बेटी बचाओ अभियान, लोक प्रबंधन, बौद्व विश्‍वविद्यालय, हिन्‍दी विवि, तीर्थ दर्शन योजना आदि शामिल हैं। इन योजनाओं ने दिल्‍ली तक में धूम मचाई है पर यहां भी अफसोस होता है कि चौहान अपना गृह जिला सीहोर के विकास में उतनी रूचि नहीं ले रहे हैं जितनी उन्‍हें लेनी चाहिए। विकास के रूप में आज भी सीहोर जिला मॉडल के रूप में विकसित नहीं हो पाया है। सामाजिक कार्यकर्ता राजेंद्र कोठारी कहते हैं कि अगर चौहान सिर्फ सीहोर जिले को विकास का मॉडल स्‍थापित कर दें, तो अन्‍य जिले अपने आप विकसित होने लगेगे। इस जिले से पूर्व मुख्‍यमंत्री सुंदरलाल पटवा का भी खासा लगाव रहा है। आर्किटेक्‍ट के रूप में राजनीतिक सफर कर रहे पूर्व मुख्‍यमंत्री और वर्तमान में शिव सरकार में कैबिनेट मंत्री बाबूलाल गौर ने अपने मुख्‍यमंत्रित्‍व कार्यकाल के दौरान भोपाल के विकास में कोई कसर नहीं छोड़ी उन्‍हीं के कार्यकाल में विकास की दिशा में नये शौपान गड़ रहा है फिर भी राजधानी का जितना विकास होना चाहिए उतना नहीं हो पाया है। कुल मिलाकर राज्‍य को जिलों से मुख्‍यमंत्री मिले, लेकिन उन जिलों की तस्‍वीर और तकदीर आज भी नहीं बदली है। 
                                        ''जय हो मप्र की''

1 टिप्पणी:

  1. श्री राजेश दुवे जी आपको मेरा नमस्कार . आपके इस ब्लॉग में शामिल होना चाहता हूँ . कुछ पोस्ट लेख भी है। क्या आप इसकी ई मेल दे सकते है।।?

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