बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

राजनेताओं की फौज और बौना नेतृत्‍व

 
   मध्‍यप्रदेश और नेतृत्‍व : स्‍थापना दिवस में 14 घंटे शेष
विविध धाराओं में बहने वाला राज्‍य 'मध्‍यप्रदेश' में राजनेताओं की लंबी फौज है। हर पार्टी में नेताओं की भरमार है। न तो नेता अपने अधिकारों के लिए लड़ते हैं और न ही राज्‍य को ऊंचाईयों पर ले जाने के लिए उनमें ललक नजर आती है। यहां तक कि राजनीति भी डर-डरकर करते हैं। न तो नेतृत्‍व को चुनौती दे पाते हैं और न ही नेतृत्‍व के सामने खड़े हो पाते हैं, जो नेता हिम्‍मत भी दिखाते हैं वह थोड़े दिन में पस्‍त हो जाते हैं। यही वजह है कि मध्‍यप्रदेश की कर्म भूमि में पले-बड़े नेताओं में जोश और उत्‍साह तो गायब ही रहता है। उंगलियों पर ही ऐसे बिरले नेता गिने जा सकते है जिन्‍होंने अपनी पहचान भोपाल से लेकर दिल्‍ली तक बनाई है। इसके बाद भी राज्‍य के अधिकारों को लेकर लड़ने वाले नेताओं का तो आज भी टोंटा लगता है जिससे लगता है कि राज्‍य में राजनेताओं की तो फौज ही फौज है पर नेतृत्‍व के नाम पर बौने साबित हो रहे हैं। बिरले ही नेता हैं जिन्‍होंने मध्‍यप्रदेश्‍ से अपनी राजनीति शुरू की और फिर देश के विभिन्‍न राज्‍यों में जाकर डंका बजाया है। इसमें सबसे अव्‍वल नाम एनडीए संयोजक शरद यादव का है उसके बाद अर्जुन सिंह और फिर उमा भारती हैं एवं मध्‍यप्रदेश में जन्‍मी वंसुधरा राजे सिंधिया तो राजस्‍थान की मुख्‍यमंत्री बन चुकी है और वह भी राष्‍ट्रीय राजनीति में अपना जलवा बिखेर रही हैं। समाजवादी पृष्‍ठभूमि के नेता शरद यादव ने तो तीन-चार राज्‍यों से अपनी मौजूदगी दर्ज कर राष्‍ट्रीय नेता बन गये हैं, जबकि लगातार दो बार मुख्‍यमंत्री रहे अर्जुन सिंह एक बार ही दिल्‍ली से लोकसभा चुनाव जीते हैं। ऐसा ही साध्‍वी से मुख्‍यमंत्री बनी सुश्री उमा भारती भी वर्ष 2011 में उत्‍तरप्रदेश विधानसभा में विधायक चुनी गई हैं। 
इन नेताओं के अलावा राष्‍ट्रीय स्‍तर पर पहचान बनाने वाले नेताओं की भी लंबी फेहरिस्‍त है जिसमें डॉ0 शंकरदयाल शर्मा, अटल बिहारी वाजपेयी, श्रीमती विजयराजे सिंधिया, पंडित रविशंकर शुक्‍ल, डीपी मिश्रा, गोविंद नारायण सिंह, अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह, उमा भारती, शिवराज सिंह चौहान, शरद यादव, श्‍यामाचरण शुक्‍ल, विद्याचरण शुक्‍ल, सुंदरलाल पटवा, वीरेंद्र कुमार सकलेचा, कमलनाथ, माधवराव सिंधिया, ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया, सुरेश पचौरी, कुशाभाऊ ठाकरे, होमीदाजी आदि शामिल हैं। वर्तमान में दिग्विजय सिंह राष्‍ट्रीय राजनीति में छाये हुए हैं, तो उमा भारती भी पीछे-पीछे चल रही हैं। वही मध्‍यप्रदेश के मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी कार्यशैली की वजह से राष्‍ट्रीय राजनीति में प्रवेश कर रहे हैं। उनकी धमक दिल्‍ली तक में सुनाई दे रही है। भाजपा नेता नरेंद्र सिंह तोमर भी अपने स्‍तर पर प्रयास कर रहे हैं तथा विदिशा संसदीय क्षेत्र से सांसद सुषमा स्‍वराज लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं। 
मध्‍यप्रदेश की राजनीति हमेशा से दो दलों के बीच ही सिमटी रही है। यहां पर कांग्रेस और भाजपा के बीच  राजनीतिक युद्व चलता रहा है। यह जरूर है कि भाजपा के चेहरे बदलते रहे हैं, कभी हिन्‍दू महासभा, तो फिर जनसंघ तो कभी जनता पार्टी और अब भाजपा के बैनर तले लड़ाई लड़ी जा रही है। 56 साल के सफर में राजनैतिक दलों में भारी बदलाव साफ तौर पर देखा जा रहा है। अलग-अलग क्षेत्रों में नेताओं ने अपनी पहुंच बनाई है, लेकिन प्रदेश को लेकर लड़ने वाले नेताओं की कमी साफ तौर पर झलकती है। यहां की राजनीति में एक त्रिकोण समाजवाद भी है। इस विचारधारा से प्रभावित नेताओं ने अपना एक अलग मुकाम बनाया है। शरद यादव आज राष्‍ट्रीय राजनीति में छाये हुए हैं, तो रघु ठाकुर अभी भी प्रदेश की राजनीति में कदमताल कर रहे हैं। धीरे-धीरे समाजवादी विचारधारा के नेताओं ने अपने आपको भाजपा और कांग्रेस से जोड़ लिया, क्‍योंकि उन्‍हें अपने अस्तित्‍व को बचाने के लिए दलों की जरूरत थी। अन्‍य राज्‍यों की तरह राज्‍य की सियासत भी जातिवादी रोग से पीडि़त हो गई है। यहां भी जातियों के बल पर राजनीति की जाने लगी है। वहीं धर्म का भी धीरे-धीरे घालमेल हो रहा है।
        मध्‍यप्रदेश का इसे दुर्भाग्‍य ही कहेंगे कि यहां कि राजनीति छोटे-छोटे इलाकों में सि‍मट कर रह गई है। कोई मालवा, महाकौशल में अपने दांव-पेंच खेल रहा है, तो किसी ने बुंदेलखंड, विंध्‍य और मध्‍य भारत में अपने-अपने दांव लगा छोड़े हैं। इससे प्रदेश का नेतृत्‍व उभर नहीं पा रहा है। यही स्थिति कांग्रेस और भाजपा की बनी हुई है। अब यहां पर धीरे-धीरे बहुजन समाज पार्टी ने भी पैर जमाना शुरू कर दिये हैं। बहुजन समाज पार्टी बड़े स्‍तर पर अपने नेता तैयार नहीं कर पाई है, लेकिन सत्‍ता में भागीदार बनने के सपने जरूर देख रही है। इस प्रदेश में अरसे से ठाकुर, ब्राम्‍हण राजनेताओं का वर्चस्‍व रहा है, पर भाजपा ने यह मिथक तोड़ दिया है। वर्ष 2003 से भाजपा में पिछड़े वर्ग के नेता को मुख्‍यमंत्री की कमान सौंपी है और शुरूआत में उमाभारती फिर बाबूलाल गौर और अब शिवराज सिंह चौहान मुख्‍यमंत्री बने हुए हैं, जबकि अभी भी कांग्रेस आदिवासी और ठाकुर राजनीति में उलझी हुई है, जो इससे बाहर निकलने को तैयार नहीं है, जबकि भाजपा ने अपना दायरा फैला दिया है। इसके चलते भाजपा तो अपने-अपने कुनवा में विस्‍तार कर रही है, लेकिन कांग्रेस अभी भी मतदाताओं का मिजाज समझ रही है। अगर यही हाल रहा तो कांग्रेस के लिए भविष्‍य में बड़ा संकट खड़ा हो जायेगा। यूं तो मध्‍यप्रदेश में तीसरी ताकत भी जोर अजमाईश कर रही है, लेकिन उसकी कोई आधार भूमि नहीं है जिसके चलते सिर्फ सपने देखे जा रहे हैं परिणाम मुश्किल से ही मिल पायेंगे। कुल मिलाकर मध्‍यप्रदेश की राजनीति में जो ठहराव आ गया है उसे तोड़ने के लिए राजनेताओं को स्‍वयं पहल करनी होगी। इसके अलावा राजनीतिक दलों को भी इस बात पर गौर करना होगा कि उनका नेतृत्‍व न सिर्फ प्रदेश की सीमाओं से बाहर निकले, बल्कि दिल्‍ली में भी मध्‍यप्रदेश के अधिकारों के लिए केंद्र सरकार से टकरा सकें। फिलहाल तो केंद्र से टकराने की बात होती है, तो अपने राजनीतिक गुणा-भाग के हिसाब से राजनेता टकराते हैं, लेकिन अभी मध्‍यप्रदेश के उन राजनेताओं को खोजना पड़ेगा, जो कि रेल सुविधाओं को बढ़ाने के लिए लड़ते नजर आये और 56 साल में जहां रेल नहीं पहुंची है वहां के लिए सरकार से भिड़ जाये, इसके अलावा राष्‍ट्रीय राजमार्ग, किसानों को उनकी उचित कीमत दिलाना, परिव‍हन सुविधाओं का विकास, प्रशासनिक अमले में इजाफा, उद्योगों के लिए रास्‍ते खोलने सहित आदि बिन्‍दुओं को लेकर नेता जब सीमाओं से पार जाकर लड़ने लगेंगे, तो फिर मप्र के लिए वह दिन अपने आप में सुनहरे अवसर होंगे, क्‍योंकि उनके बीच का राजनेता प्रदेश के हकों के लिए केंद्र में ताल ठोक रहा होगा। निश्चित रूप से अभी इस दिशा में अंधेरा नजर आता है, लेकिन वह दिन दूर नहीं है, जब कोई न कोई राजनेता मध्‍यप्रदेश के लिए लड़ता दिल्‍ली में नजर आयेगा। 
                                   ''जय हो मप्र की''


 

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

उद्योगपतियों ने स्‍वीकारा मप्र अपार संभावनाओं वाला राज्‍य

मध्‍यप्रदेश और उद्योगपतियों की प्रशंसा : स्‍थापना दिवस के 01 दिन शेष
     निश्चित रूप से देश का दिल मध्‍यप्रदेश में विकास की अपार संभावनाएं हैं। यहां प्राकृतिक संसाधनों की बहार है। न तो जंगल की चिंता है और न ही बदलते मौसम से कोई परेशानियां होती हैं। सड़क, बिजली, पानी की बुनियादी सुविधाओं की भी ज्‍यादा हाय-तौबा नहीं है। लगातार इन क्षेत्रों में काम हो रहे हैं। पल-पल राज्‍य की तस्‍वीर बदल रही है। अब तो देश के जाने-माने उद्योगपतियों ने भी स्‍वीकार कर लिया है कि मप्र अपार संभावनाओं वाला राज्‍य है। इन शीर्ष उद्योगपतियों का कहना है कि प्रदेश में निवेश के लिए अनुकूल माहौल है। बार-बार निवेशकों को आकर्षित करने में मप्र कामयाब हुआ है। इसका श्रेय सिर्फ मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान चौहान को जाता है, जिन्‍होंने निवेशकों से सीधा संवाद करके उन्‍हें मप्र आने से विवश कर दिया। लगातार हो रही इन्‍वेस्‍टर्स मीट के बाद अक्‍टूबर 2012 में देश के शीर्षक उद्योगपति अनिल अंबानी, आदि गोदरेज, शशि रूइया, बाबा कल्‍याणी, अभय फिरोदिया ने एक स्‍वर से स्‍वीकार किया है कि मप्र में विकास की अपार संभावनाएं हैं। 
उद्योगपति फिदा हुए मध्‍यप्रदेश पर : 
  • मध्‍यप्रदेश नंबर वन प्रोग्रेसिव राज्‍य है। प्रदेश में निवेश के लिए उत्‍साह अद्वितीय है। - अनिल अंबानी
  • मध्‍यप्रदेश का एग्रीकल्‍चर आउटपुट जबर्दस्‍त है। पॉवर के मामले में कुछ दिनों में बेहर हो जायेगा। यहां का माहौल और वातावरण संतोषजनक है। प्रदेश में अच्‍छा राजनैतिक नेतृत्‍व और स्थिरता और निवेश के लिए वातावरण है। बीते कुछ सालों में प्रदेश में विकास की कुछ आश्‍चर्यजनक गति पाई है। - आदि गोदरेज
  • मध्‍यप्रदेश ने अद्वितीय आर्थिक प्रगति की है। निवेश के लिए वातावरण बना है। सारे बदलाव कुछ सालों में हुए हैं। - शशि रूइया 
  • मध्‍यप्रदेश में वेस्‍ट गवर्नेन्‍स का अनुभव हुआ है। यहां की सरकार और अफसर सहयोगात्‍मक रवैया रखते हैं। - बाबा कल्‍याणी 
  • कुछ सालों में मप्र में काफी बदलाव आया है। तीन अहम बाते हुई हैं जिसमें गुड गवर्नेंस, इन्‍फ्रांस्‍ट्रक्‍चर और उद्योगों के लिए वातावरण बना है। पहले इसे मंद प्रदेश यानि धीमा प्रदेश कहते थे अब यह मजबूत प्रदेश बनता जा रहा है। इस राज्‍य में 25 साल से शांति से काम कर रहा हूं। यही बड़ी बात है। - अभय फिरोदिया 
धनवर्षा से गद-गद सरकार : 
          राज्‍य की भाजपा सरकार की पहल पर 28 से 30 अक्‍टूबर, 2012 तक इंदौर में हुए समिट ने प्रदेश में धनवर्षा कर दी है। हर तरफ निवेश के नाम पर करार हो रहे हैं। इससे निश्चित रूप से विकास की एक नई राह राज्‍य को मिली है। उद्योगपति नये-नये क्षेत्रों में निवेश करने के लिए आगे आ रहे हैं और वे चाह रहे हैं कि प्रदेश में विकास के लिए नर्इ किरण बहे। इस बार प्रदेश में निवेश के लिए लोहा, इस्‍पात, होटल, चिकित्‍सा, पर्यटन, औषधि, वस्‍त्र-परिधान, खाद्य प्रसंस्‍करण, शिक्षा, ऊर्जा, उर्वरक, वैकल्पिक ऊर्जा, सीमेंट आदि क्षेत्रों में आगे बढ़कर काम करने की इच्‍छा जाहिर की है। मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी साफ तौर पर निवेशकों से कह दिया है कि प्रदेश में आज सभी काम पारदर्शी तरीके से हो रहे हैं उद्योगपतियों को विश्‍वास दिलाते हुए चौहान कहते हैं कि किसी भी उद्योगपति को प्रदेश में आकर निवेशक को यह नहीं लगेगा कि उसे ठगा गया है। यहां न तो उद्योगपति से चंदा मांगा जायेगा और न ही फंड। निश्चित रूप से उद्योगपतियों को आकर्षित करने में मप्र सरकार कामयाब हुई है। मुख्‍यमंत्री की प्रशंसा के गीत भी उद्योगपतियों ने जमकर गाये हैं। अंबानी ग्रुप के चैयरमैन अनिल अंबानी ने तो यहां तक कह दिया कि मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान में उत्‍साह, कुशलता और दृढ़ता जैसी बड़ी खूबिया हैं। इतनी कम उम्र में यह खूबिया बहुत कम लोगों में मिलती है, जो कि प्रदेश के विकास में नये आयाम स्‍थापित करेंगी। 
                                        ''जय हो मप्र''

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

मेट्रो कल्‍चर से मिला मध्‍यप्रदेश को खुलापन

 
       मध्‍यप्रदेश और मेट्रो कल्‍चर : स्‍थापना दिवस के 02 दिन शेष
        जैसे-जैसे बाजार के पांव फैलते जा रहे हैं। वैसे-वैसे शहर महानगर हो रहे हैं और धीरे-धीरे की उनकी शक्‍ल बदल रही हैं। इस बदलाव ने मप्र की नौजवान पीढ़ी को खुलापन और आजादी दे दी है एवं कहीं कोई बंदिश नहीं है। खुले आकाश में पूरी ताकत से अपना जौहर दिखाने का उन्‍हें पूरा मौका मिला हुआ है जिसका परिणाम यह हो रहा है कि राज्‍य की नई युवा पीढ़ी अपने दमखम पर कस्‍बे से शहर और शहर से महानगर में दस्‍तक देकर मेट्रो में विचरण कर रही है। ज्ञान के दीप ने उन्‍हें अब न सिर्फ देश के मेट्रो शहरों में प्रमुख स्‍थानों पर अहम भूमिका अदा करने का मौका दे दिया है, बल्कि सात समुंदर पार जाकर भी युवा पीढ़ी अपने ज्ञान का जौहर दिखा रही है। इससे न सिर्फ मध्‍यप्रदेश को एक नई ताकत मिल रही है, बल्कि अब धीरे-धीरे शहरों और महानगरों में बदलाव कदम-कदम पर नजर आने लगे हैं। 
       आज से दस साल पहले भोपाल और इंदौर में मॉल का नाम सुनकर ही लोग चौंक जाते थे, लेकिन बदली परिस्थितियों में अब मॉल की चकाचौंध में जहां-तहां लोग विचरण करते दिख ही जायेंगे। अब तो दिल्‍ली और मुंबई को भी इन शहरों के मॉल चुनौती दे रहे हैं। युवा पीढ़ी में न सिर्फ अपने रहन-सहन में बदलाव आया है, बल्कि चाल-चलन और आधुनिक संसाधनों का उपयोग करने की कला में उनका कोई शान ही नहीं है, मोबाइल, पॉमटॉव, ग्‍लैक्‍सी मोबाइल और लैपटॉप पर जब उनकी उंगलियां तेजी से चलती है तो वह एक क्षण में दुनिया के किसी भी कौने में बात करते नजर आते हैं।
इससे साफ जाहिर है कि आज की पीढ़ी ने अपने आप में भारी बदलाव करके यह साबित कर दिया है कि हम किसी से कम नहीं हैं, जबकि आज से एक दशक पहले मप्र की नौजवान पीढ़ी को मौके और अवसर नहीं मिल पाते थे, लेकिन उच्‍च शिक्षा के क्षेत्र में धीरे-धीरे राज्‍य में फैलाव हुआ। यह दौर 90 के दशक से शुरू हुआ और इस पर 1993 से परवान चढ़ना शुरू हुआ जिसके परिणामस्‍वरूप शहरों और महानगरों में कॉलेजों की बाढ़ आ गई। हो सकता है कि शिक्षाविद यह सवाल उठा सकते हैं कि आज भी मप्र में ऐसी कोई यूनिवर्सिटी नहीं है जिसकी देश भर में धाक हो, लेकिन धीरे-धीरे विवि का बजूद तो बन रहा है जिसे इंकार नहीं किया जा सकता है। 
बदलाव का दौर :
      मध्‍यप्रदेश में बदलाव का यह दौर कोई एक दिन की बात नहीं है, बल्कि इसके लिए राज्‍य निर्माताओं की पीढि़यों ने लंबा समय दिया है जिसके फल अब मिलने लगे हैं और अब एक कदम आगे जाने की चाहत भी बढ़ी है। देश के किसी भी कौने में अब मध्‍यप्रदेश के लोग रोजगार करते या किसी संस्‍थान में नौकरी करते मिल जायेगे, अन्‍यथा इससे पहले मप्र के वांशिंदे राज्‍य से बाहर नौकरी करने से घबराते थे, सिर्फ मजदूर वर्ग रोजगार की तलाश में हर साल पलायन करता था, लेकिन वर्ष 2000 के बाद से एकदम तस्‍वीर ने करवट ली और अब दस से बारह साल के भीतर देश के मेट्रो शहरों के साथ-साथ विदेशों में भी नौजवान अपने हुनर का प्रदर्शन कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इससे हमें संतुष्‍ट हो जाना चाहिए, बल्कि लगातार इस दिशा में सक्रिय रहने की जरूरत है तभी और आगे की मंजिल तय होगी। 
विशेषकर जो शहर महानगर से अब मेट्रो की तरफ बढ़ रहे हैं उनमें अब और विस्‍तार करने की जरूरत है, जो बुनियादी सुविधाएं ज्ञान के विस्‍तार में उपलब्‍ध कराई जा रही हैं उनमें इजाफा करने की जरूरत है। यह सिलसिल चल भी रहा है, जो कि अब थमने का नाम नहीं लेने वाला है, क्‍योंकि परिवर्तन के दौर में राज्‍य चल पढ़ा है, जो कि नई ऊंचाईयों में पहुंचकर ही दम लेगा। 
                                         ''जय हो मप्र की'' 
पूर्व मुख्‍यमंत्री जोशी की नजर में मध्‍यप्रदेश : 
               राज्‍य में जनता पार्टी की सरकार में मुख्‍यमंत्री रहे कैलाश जोशी का कहना है कि मेरा सपना है कि मप्र विकास के नये आयाम स्‍थापित करें इस दिशा में राज्‍य ने अपने कदम बढ़ाये हैं। विकास की गंगा भी बह रही है। प्राकृतिक संपदा का पूरा उपयोग किया जा रहा है। श्री जोशी भाजपा के वरिष्‍ठ नेता है, वे पार्टी के अध्‍यक्ष भी रहे हैं, वे राज्‍य के हर इलाके से वाकिफ हैं तथा वर्तमान में भोपाल संसदीय क्षेत्र से सांसद है। उनका कहना है कि प्राकृतिक संसाधनों का वैज्ञानिक तरीके से दोहन किया जाना चाहिए, प्रशासन में जनता की भागीदारी बढ़े, खेती वैज्ञानिक तरीकों से की जाये, जो भूमि उपलब्‍ध है उसका अधिक से अधिक उपयोग हो।

रविवार, 28 अक्तूबर 2012

चल पड़ी अलग राह पर नारी मध्‍यप्रदेश में


 मध्‍यप्रदेश और स्‍त्री की बढ़ती ताकत : स्‍थापना दिवस के 03 दिन शेष 
महिलाओं की ताकत में लगातार इजाफा हो रहा है। उनके अधिकार असीमित हैं। वे समाज में अपनी नई राह बना रही हैं। उन्‍हें कदम-कदम पर तकलीफे भी हो रही हैं। समझौता न करने का उन्‍होंने संकल्‍प कर लिया है। इसके चलते मप्र में महिलाओं ने अपनी एक नई दुनिया बसा रही हैं। इस अभियान में मप्र की भाजपा सरकार भी उन्‍हें हर मुश्किल क्षण में उनके साथ है। मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का बेटी प्रेम जगजाहिर है। वे बेटियों की हौसला अफजाई के लिए कोई कौर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। जब मप्र में लिंगानुपात असंतुलित हुआ, तो उन्‍होंने बेटी बचाओ अभियान का शंखनाद कर डाला। बेटियों की शादियां हर मां-बाप के लिए एक कठिन राह होती है, लेकिन सीएम की पहल पर बेटियों की शादिया कन्‍यादान योजना के तहत कराई जा रही है। ऐसा नहीं है कि मप्र में बेटियों और महिलाओं के लिए स्‍वर्ग का द्वार खुल गया है। उन्‍हें अभी भी प्रताडि़त होना पड़ रहा है। कभी वे बलात्‍कार का शिकार हो रही है, तो कभी वे दलालों के हाथों बिक भी रही हैं। यह मप्र के लिए शर्मनाक स्थिति है। मप्र राज्‍य के कई हिस्‍सों से बेटियों के बेचे जाने की घटनाएं सामने आई हैं। महिलाओं के असुरक्षित होने की घटनाएं समय-समय पर सामाजिक संगठन और विरोधी दल सवाल उठाते रहे हैं। इसके बाद भी भाजपा सरकार इससे विचलित नहीं है। राज्‍य के मुखिया चौहान महिला सशक्तिकरण के लिए हर तरफ के कदम उठा रहे हैं। उन्‍होंने महिलाओं के लिए स्‍थानीय चुनाव में 50 प्रतिशत आरक्षण देकर पुरूष के बराबर खड़े करने की कोशिश की है। बेटी बचाओ अभियान के लिए वे स्‍वयं जिलों में रैलीकर जनजागरण अभियान चलायेहुए हैं। इसके बाद भी बेटियां पैदा होने के बाद उनके बाप बेटी को सड़क पर छोड़कर भाग रहे हैं। हाल ही में होशंगाबाद जिले में पांच दिन पहले पैदा हुई बच्‍ची सड़क पर मिली है, जबकि गुना में चौथी बेटी पैदा करने पर एक पुरूष ने अपनी पत्‍नी के हाथ काट डाले, भले ही मामला दर्ज हो गया है, लेकिन इसके बाद भी घटनाएं थम नहीं रही हैं। इसके अलावा महिलाओं के साथ उत्‍पीड़ने की वारदातों में आज मप्र लगातार विवादों में रहता है। आंकड़ों के जाल में जाये, तो महिला उत्‍पीड़न में मप्र राज्‍यों में नंबर वन पर है। इस सब के बाद भी महिलाओं की ताकत बढ़ी है, लेकिन महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने के लिए महिलाएं स्‍वयं सामने नहीं आ रही हैं। एनजीओ से जुड़ी महिलाएं जरूर समय-समय पर अपनी ताकत दिखाती है, लेकिन इन सबके बाद मप्र की महिलाएं स्‍वयं अपने दम पर आगे बढ़ रही है। वे अब खुलकर न सिर्फ शिक्षा पा रही है, बल्कि मुस्लिम युवतियां बुरका पहनकर न सिर्फ कॉलेज में दस्‍तक दे रही हैं, बल्कि बाजारों में भी अपने घर परिवार का सामान खरीदते नजर आ जाती हैं। राज्‍य के एक दर्जन ऐसे जिले हैं जहां की युवतियां रोजाना, नदी-नाले पा करने के लिए रस्सियों का सहारा लेकर स्‍कूल पहुंच रही हैं, तो शहरों की युवतियां फेंशन शो में अपने जलवे दिखा रही हैं यानि हर तरफ महिलाएं अपने कदम बढ़ा रही है, जो कि एक शुभ संकेत हैं। प्रताड़ना है, तो भविष्‍य की संभावनाएं भी साफ नजर आती हैं। महिला सशक्तिकरण में मप्र लगातार अव्‍वल हो रहा है। सबसे दुखद पहलू यह है कि वर्ष 2011-12 में सांख्यिकी विभागीय द्वारा जारी रिपोर्ट में चौंकाने वाली जानकारी दी गई है कि महिला स‍शक्तिकरण के लिए कई योजनाएं चल रही है, लेकिन उनका असर महिलाओं पर बिल्‍कुल नहीं हो रहा है। इससे एक सवाल यह उठता है कि राज्‍य सरकार महिलाओं की ताकत बढ़ाने के लिए हर साल करोड़ों रूपये व्‍यय किये जा रहे हैं, लेकिन उनके परिणाम शून्‍य मिल रहे हैं। यह बातें सरकार की रिपोर्ट से ही जारी हो रही है। इससे साफ जाहिर है कि सरकार को इन रिपोर्ट के आधार पर अपनी योजनाओं के बारे में नये सिरे से पहल करनी चाहिए और देखना चाहिए कि कहां कमी रह गई है। ताकि महिलाओं से संबंधित योजनाएं और अच्‍छे चल सके। इसके साथ ही उत्‍पीड़न रोकने के लिए और अच्‍छे से प्रयास किये जाने चाहिए। 

महिला सशक्तिकरण और आंकड़े :
  • महिला सांसद - 06 
  • राज्‍यसभा महिला सांसद - 03 
  • महिला विधायक - 24
  • महिला महापौर - 08 
  • नगर पालिका अध्‍यक्ष - 31 
  • नगर पंचायत अध्‍यक्ष - 92 
  • जिला पंचायत अध्‍यक्ष - 25 
  • जनपद पंचायत अध्‍यक्ष - 156 
  • कृषि उपज मंडी समिति अध्‍यक्ष - 80 
  • महिला सरपंच - 11,398 
  • महिला पंच - 1,81,668 
महिलाएं और मध्‍यप्रदेश सरकार की योजनाएं :   
  • लाडली लक्ष्‍मी योजना
  • कन्‍यादान योजना 
  • बेटी बचाओ अभियान 
  • युवतियों को साइकिल वितरण 
  • बेटियों को शिक्षा में महत्‍व
  • बेटियों को गणवेश और पुस्‍तकें
  • महिलाओं को जमीन में छूट 
  • शिशु लिंगानुपात बढ़ाने हेतु

दलितों के बिखरते सपनें और उन पर राजनीति

 मध्‍यप्रदेश व दलित वर्ग : स्‍थापना दिवस 04 दिन शेष
           हर व्‍यक्ति की तमन्‍ना होती है कि समाज में उसका मान-सम्‍मान बढ़े, लोग महत्‍व दें, इसके लिए वह समाज के मापदंडों पर उतरने की कोशिश भी करता है। मध्‍यप्रदेश में एक वर्ग ऐसा भी है, जो समाज के मापदंडों पर उतरने के लिए लाख प्रयास कर रहा है, फिर भी उसके साथ भेदभाव, उपेक्षा, दरकिनार, अपमानित करने का व्‍यवहार किया जा रहा है। यह सब हो रहा है राज्‍य के दलित समाज के साथ, जिसका अपना एक बड़ा महत्‍व है। प्रदेश में 34 अनुसूचित जाति की विधानसभा सीटें और 03 लोकसभा सीटें है जिन पर दलित वर्ग निर्णायक भूमिका अदा करता है फिर भी उनके साथ लगातार भेदभाव और पक्षपात किया जा रहा है। राज्‍य में ऐसा कोई इलाका नहीं मिलेगा, जहां पर दलित वर्ग न मिले, लेकिन इसके बाद भी दलित वर्ग के साथ नाइंसाफी लगातार हो रही है। ऐसा नहीं है कि राजनीतिक दल दलित वर्ग के विकास के लिए चिंतित न हों। कांग्रेस और भाजपा  समय-समय पर दलित वर्ग के उत्‍थान में कोई कौर-कसर नहीं छोड़ रही है। वर्ष 2001-02 में राज्‍य के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री दिग्विजय सिंह ने सोशल इंजीनियरिंग के जरिये दलित वर्ग की चिंता करते हुए दलित एजेंडा तैयार करवाया था इस एजेंडे को तैयार करवाने में देशभर के विशेषज्ञों को बुलाकर उनकी राय ली गई थी। इसके बाद ही कांग्रेस सरकार ने दलित वर्ग को खेती करने के लिए चरनोई जमीन आवंटित की और व्‍यापार करने के लिए लघु-उद्योग निगम में दलित वर्ग को विशेष छूट दी गई। इसके चलते चरनोई भूमि के आवंटन को लेकर मप्र की राजनीति बेहद गर्म हो गई। वर्ष 2002 में राज्‍य का ऐसा कोई हिस्‍सा नहीं बचा था, जहां पर दलित वर्ग पर हमला न हुआ हो। जमीनों के आवंटन को लेकर दलितों ने बेहद एड़ी चोटी का जोर लगाया, लेकिन दबंगों के सामने उन्‍हें झुकना पड़ा और अंतत: वर्ष 2003 में कांग्रेस सरकार का पतन हो गया। इसके बाद भाजपा न सत्‍ता की कमान संभाली, लेकिन उन्‍होंने कांग्रेस का चरनोई वाला मामला फाइलों से बाहर ही नहीं निकलने दिया। इसके अलावा भाजपा और उनकी सरकार के मुखिया मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दलित वर्ग को प्रभावित करने की कोई कौर कसर नहीं छोड़ी। उन्‍होंने सितंबर, 2012 में सांची में राष्‍ट्रीय स्‍तर का बौद्व विवि शुरू कराने की पहल करा दी। इससे पहले अनुसूचित जाति मंत्रालय बन चुका है। दलितों को प्रभावित करने के लिए समय-समय पर कोई मौका नहीं छोड़ा है। हर साल वे संविधान निर्माता डॉ0 भीमराव अम्‍बेडकर के जन्‍म स्‍थल महू के भव्‍य कार्यक्रम में हिस्‍सा लेते हैं। इसके साथ ही महू में सेना की जमीन पर बाबा साहब का स्‍मरक बनाने के लिए केंद्र सरकार को पत्र लिख चुके हैं। दिल्‍ली में डॉ0 अम्‍बेडकर की परिनिर्वाण स्‍थल पर स्‍मरक बनाने की इच्‍छा जाहिर की है। संत रविदास स्‍मृति पुरस्‍कार शुरू किया है, तो संत रविदास के नाम पर चर्म निगम बनाने का एलान सरकार कर चुकी है, लेकिन जमीन पर उसका कोई अता-पता नहीं है। इसके साथ ही छात्र-छात्राओं को आगे बढ़ाने के लिए हरसंभव प्रयास हो रहे हैं। इन सबके बाद भी मप्र में क्‍या वजह है कि दलित वर्ग पर लगातार अत्‍याचार होते हैं। फिर भी राजनीतिक दल क्‍यों चुप्‍पी साध जाते हैं। न तो वे कोई हल्‍ला मचाते हैं और न ही उनके अधिकारों के लिए लड़ते हैं। वोट के गुणा-भाग में जरूर दलित वर्ग के नेता दिल्‍ली में बड़े नेताओं के सामने अपना अधिकार जमाते हैं, लेकिन जमीनी हकीकत बिल्‍कुल अलग है। दलितों के नाम पर बड़े नेताओं से अपने अधिकार मांगते हैं और मप्र में हो रहे अत्‍याचारों के खिलाफ अखबारों में बयान तक नहीं देते हैं। इससे क्‍या यह समझा जाये कि दलित नेता अपना पॉवर बढ़ाने के लिए तो हर काम करते हैं, लेकिन जब दलित के साथ खड़ा होना होता है, तो वे चुप्‍पी साध जाते हैं, क्‍या यही है उनका दलित प्रेम। यह एक बड़ा गंभीर सवाल है कि आखिरकार दलित नेता अपने वर्ग के लिए क्‍यों नहीं लड़ते है और न ही उनकी गूंज भोपाल से लेकर दिल्‍ली तक सुनाई देती है। 
दलित वर्ग पर हमलों की बानगी : 

       मध्‍यप्रदेश में सप्‍ताह भर में ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता है, जब दलित वर्ग की उपेक्षा, अपमानित और उनके साथ छुआ-छूत का व्‍यवहार तथा दबंगों द्वारा  उन पर हमले की घटनाएं मीडिया की सुर्खिया न बनती हों। कभी दलित नौजवानों को घोड़े पर चढ़कर बारात निकालने से रोका जाता है, तो कहीं बुजुर्ग महिला को मंदिर में पूजा करने से दबंग रोक देते हैं। 25 अक्‍टूबर 2012 को प्रदेश में दलित लोगों को दुर्गा उत्‍सव की झांकी को विसर्जन करने से रोका गया, जिस पर तनाव पैदा हुआ। दलित वर्ग पर हमले कर उन्‍हें घायल करने की घटनाएं तो आम बात हो गई है। इसके लिए भाजपा और कांग्रेस तो जिम्‍मेदार है ही, मगर सबसे ज्‍यादा दलितों को लेकर हल्‍ला मचाने वाली बहुजन समाज पार्टी तो बिल्‍कुल ही शांत बैठी रहती है। उसके नेता मप्र में दलित अत्‍याचार पर अपनी जुबान तक नहीं खोलती। कांग्रेस और भाजपा के लोग तो अपने मुंह पर लगा ताला खोल ही देती है, लेकिन बसपा कभी भी कोई बात नहीं करती है, तब बसपा का दलित प्रेम समझ से परे होता है। कांग्रेस में दलित नेता सज्‍जन सिंह वर्मा और प्रेमचंद्र गुड्डू तथा राधाकिशन मालवीय जाने पहचाने चेहरे हैं, लेकिन यह भी दलित राजनीति नहीं करते हैं। इसी प्रकार भाजपा में थवर चंद्र गेहलोत, डॉ0 गौरीशंकर शेजवार, हरिशंकर खटीक, सत्‍यनारायण जटिया आदि हैं। इन्‍हें भी दलितों की चिंता कभी-कभार ही सताती है। यही वजह है कि मप्र में दलित समाज लगातार अपने आपको अलग-थलग पाता है। 
                                    ''जय हो मप्र की''

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

विभाजन का दर्द आज भी पीड़ा दे रहा है

मध्‍यप्रदेश व विभाजन का दर्द : स्‍थापना दिवस में 05 दिन शेष
         किसी ने विश्‍वास नहीं किया था कि मध्‍यप्रदेश का विभाजन भी हो जायेगा, लेकिन राजनेताओं की हंसी ठिठोली और छोटा राज्‍य बनाने की तमन्‍ना को लेकर मप्र को अपने लंबे सफर के बाद वर्ष 2000 में विभाजन की पीड़ा से गुजरना पड़ा। यह राज्‍य 01 नवंबर 1956 को पांच घटकों विंध्‍य, भोपाल रियासत, महाकौशल, बुंदेलखंड तथा मालवा को लेकर बना था, लेकिन वर्ष 2000 में राज्‍य के दो टुकड़े हो गये। इसकी पीड़ा आज भी मप्र और छत्‍तीसगढ़ के वांशिंदे दिल से महसूस करते हैं। अपने-अपने दर्द हैं और अपनी-अपनी पीड़ाएं हैं पर वे बयां नहीं होती है। वर्ष 2000 से 2010 तक छत्‍तीसगढ़ के वांशिंदे भी आपसी चर्चा में कहते रहे है कि उन्‍हें विभाजन रास नहीं आ रहा है, लेकिन धीरे-धीरे छग विकास के नये  पायदान पर चढ़ता ही गया और फिर पलटकर नहीं देखा। जब विभाजन हुआ था तब छग ने यह वादा किया था कि वह छोटे भाई की भूमिका अदा करेंगे, लेकिन 12 साल के सफर में छग ने अपने बड़े भाई यानि मप्र को हमेशा मदद करना तो दूर बल्कि समय-समय पर आंखे दिखाने में कोशिश की है, जिससे मप्र और छग के बीच दूरियां भी बढ़ी हैं। नेताओं के बीच टकरार भी हुई है। मप्र ने 2003 से 2008 के बीच भारी बिजली संकट का सामना किया है, लेकिन छग ने कभी भी अपने बड़े भाई को मदद नहीं की जिसके चलते मन मुटाव राज्‍यों के बीच हुए। दुखद पहलू यह है कि विभाजन के 12 साल बाद भी अभी तक सम्‍पत्तियों का बंटवारा नहीं हो पाया है। इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं हो रहे हैं दोनों राज्‍यों की सरकार अपने-अपने दावे कर रहे हैं और समस्‍याओं का सामना जनता कर रही है। विभाजन की पीड़ा का अहसास आज भी दोनों राज्‍यों को पर उनकी पीड़ा होंठो पर बयां नहीं हो पा रही है। 
                           जय हो मप्र की 

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

परदेशियों की जड़े नहीं जमती मप्र में

 मध्‍यप्रदेश व बाहरी नेताओं का प्रवेश : स्‍थापना दिवस में 06 दिन शेष
       इसे दुर्भाग्‍य ही कहेंगे कि अपनी स्‍थापना के 55 साल से अधिक का सफर पार कर चुके मध्‍यप्रदेश में आज भी ''अपनापन और हमारा राज्‍य'' की भावनाओं से ओत-प्रोत नहीं हो पाया है। फलस्‍वरूप राज्‍य के प्रति जो प्रेम और अपनतत्‍व की तस्‍वीर नजर आनी चाहिए वह गायब है। इसकी वजह राज्‍य नेताओं और नौकरशाहों का राज्‍य के प्रति लगाव न होना है। राजनेताओं के लिए तो अफसोस की बात है, क्‍योंकि वे इसी जन्‍म भूमि में पल-बढ़कर जनता के सुख दुख के साथ कदम-ताल करते हैं उन्‍हें तो राज्‍य के प्रति प्रेम बार-बार दर्शाना ही चाहिए पर ऐसा लगता है कि उनकी राजनीति के हिस्‍से में राज्‍य प्रेम का अध्‍याय ही गायब है पर ऐसा नहीं है कि सारे राजनेताओं की डायरी से राज्‍य प्रेम गायब हो गया । ऐसे बिरले राजनेता भी है, जो कि राज्‍य के प्रति बेहद लगाव बार-बार दर्शाते हैं, उनमें मध्‍यप्रदेश के मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी है, उन्‍होंने सबसे पहले वर्ष 2009 में ''अपना मध्‍यप्रदेश बनाओ'' और स्‍वर्णिम राज्‍य का नारा दिया है। इससे पहले पूर्व मुख्‍यमंत्री अर्जुन सिंह ने भी राज्‍य को नई तस्‍वीर देने में न सिर्फ अहम भूमिका अदा की, बल्कि उल्‍लेखनीय कार्य भी किये हैं। इससे अलग हटकर विकास की धुरी में मुख्‍य भूमिका अदा करने वाले नौकरशाह जरूर राज्‍य के प्रति वह प्रेम नहीं दर्शा पाते हैं, जो कि उन्‍हें दिखाना चाहिए, वे अपने आपको परदेशी मानते हैं और इसी के चलते उनकी जड़े मध्‍यप्रदेश में जम नहीं पाती हैं। ऐसे परदेशी मध्‍यप्रदेश की भूमि में अपने जड़े जमाने में कतई रूचि नहीं रखते। इन परदेशियों में राजनेता भी है, जो कि अन्‍य राज्‍यों से आकर मध्‍यप्रदेश में राजनीति कर रहे हैं, यहां तक कि मुख्‍यमंत्री जैसे ओहदे पर भी पहुंचे है, उनमें पूर्व मुख्‍यमंत्री कैलाशनाथ काटजू और बाबूलाल गौर भी शामिल हैं। तथ्‍यों के अनुसार काटजू का जन्‍म 17 जून 1887 को जावरा जिला रतलाम में हुआ। यहां उनकी नानी रहती थी, लेकिन काटजू की शिक्षा-दीक्षा उप्र में हुई तथा वे वकालत भी उप्र में करते थे। इसी प्रकार बाबूलाल गौर का जन्‍म भी उप्र में हुआ पर वे युवाकाल में ही मप्र आ गये थे, जो कि आज राज्‍य के बड़े नेता हैं। इसी प्रकार वर्तमान में भाजपा के प्रदेशाध्‍यक्ष प्रभात झा भी बिहार के निवासी हैं, लेकिन झा भी युवा काल में ग्‍वालियर आ गये थे और अधिकतर समय ग्‍वालियर में बीता है। यह नाम तो सबके सामने हैं, लेकिन प्रदेश के कई हिस्‍से में छोटी-छोटी राजनीति करने वाले और व्‍यापार में शिरकत करने वाले व्‍यापारी भारी तादाद में हैं। यह भी एक सुखद पहलू हैं कि मध्‍यप्रदेश में अभी तक कहीं भी महाराष्‍ट्र की तरह यह भावना लोगों में नहीं आई है कि हमारे राज्‍य में आकर दूसरे राज्‍य के लोग राज्‍य करें। शांत प्रवृत्ति के वांशिंदों ने हमेशा लोगों को अंगीकार किया है। कहीं कोई विरोध नजर नहीं आता है। सबसे अधिक नौकरशाह दक्षिण भारत के मप्र में हैं जिसमें तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और केरल आदि शामिल हैं। इन राज्‍यों के नौकरशाह परदेशी के रूप में काम करते हैं और इन पर समय-समय पर विभिन्‍न आरोप भी लगे, लेकिन दिलचस्‍प यह भी है कि कई नौकरशाह अब मप्र में ही बस गये हैं जिसके फलस्‍वरूप यह कहना कि परदेशी छोड़कर चले जाते हैं गलत है। कुल मिलाकर राज्‍य में परदेशियों का आना-जाना लगा रहता है, लेकिन फिर भी यहां पर यह सवाल अभी गूंजा नहीं है कि परदेशी राज्‍य के साथ अन्‍याय कर रहे हैं। 
                                       जय हो मप्र की

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

राष्‍ट्रपति, पीएम और सीएम तो जिलों से मिले पर फिर भी इलाकों की शक्‍ल नहीं बदली



 मध्‍यप्रदेश व जिलों की कमजोर ताकत : स्‍थापना दिवस में 07 दिन शेष

          मध्‍यप्रदेश की कर्म भूमि में रच-बस गये राजनेताओं ने न सिर्फ देश में राज्‍य का नाम रोशन किया, बल्कि प्रदेश में तो उन्‍होंने अपना एक अलग मुकाम बनाया। लगातार प्रगति के पथ पद पर कदमताल कर रहे राज्‍य के राजनेताओं ने दिल्‍ली में अपनी मौजूदगी न सिर्फ दर्ज की है, बल्कि अपना सिक्‍का भी चलाया है। इस प्रदेश से राष्‍ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्‍यमंत्री जैसे बड़े पदों पर छोटे-छोटे जिलों से आये राजनेता पहुंचे हैं साथ ही जिले का नाम तो ऊंचा किया ही है पर उन जिलों में विकास की जो अलख जगनी थी उसमें कहीं न कहीं कमी वैसी रह गई। 
यही वजह है कि आज भी विभिन्‍न जिले बुनियादी तकलीफों से दिन प्रतिदिन रूबरू हो रहे हैं। इसके चलते यह सवाल बार-बार दिल और दिमाग में आता है कि आखिरकार छोटे-छोटे जिलों से अपना राजनीतिक सफर शुरू करने वाले राजनेताओं ने ऊंचाईयां तो आकाश तक छू ली, लेकिन उसके बाद अपनी कर्मभूमि को ही भूल गये। मप्र के लिए गौरव का विषय है कि यहां से राष्‍ट्रपति, प्रधानमंत्री के रूप में राजनेता बने हैं। पूर्व राष्‍ट्रपति डॉ0शंकर दयाल शर्मा ने भोपाल में ही अपनी राजनीति शुरू की और फिर देश के राष्‍ट्रपति बने। इसी प्रकार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कर्मभूमि ग्‍वालियर रही और वे भी प्रधानमंत्री बने। यह जरूर है कि श्री वाजपेयी ने अपने आपको कभी मप्र का राजनेता नहीं माना, बल्कि वे हमेशा अपने आपको उत्‍तरप्रदेश का नेता मानते रहे हैं पर यह भी कड़वी सच्‍चाई है कि श्री वाजपेयी ने वर्ष 1984 में ग्‍वालियर से लोकसभा का चुनाव लड़ा, तब वे पराजित हो गये थे, लेकिन 1991 में विदिशा से लोकसभा चुनाव में जीत गये थे।
ग्‍वालियर में श्री वाजपेयी ने अपना युवा काल का लंबा समय बिताया है। वही दूसरी ओर पूर्व राष्‍ट्रपति डॉ0 शंकर दयाल शर्मा का राजनीतिक जीवन बड़ा पाक-साफ रहा है, उन्‍होंने भी 1977 में भोपाल संसदीय क्षेत्र से हार का मुंह देखा था, जबकि वे उदयपुरा विधानसभा सीट से कई बार विधायक बने हैं। डॉ0 शर्मा तो कांग्रेस के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष रहे हैं। इन दो बड़ी विभूतियों ने अपने जिलों के लिए कोई बड़ा उल्‍लेखनीय काम नहीं किया है बस नेतृत्‍व जरूर ताकतवर दिया है पर डॉ0 शर्मा के फॉलोअर तो सीमित संख्‍या में है, जबकि पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी के फॉलोअर की संख्‍या लंबी है। उनके भाषणों की नकल आज भी मप्र भाजपा से जुड़े नेता करते हैं। वाजपेयी के भाषण की स्‍टाइल को कई नेताओं ने अपना लिया है। मप्र की बार-बार चिंता करने वाले समाजसेवी राजेंद्र कोठारी तो साफ तौर पर कहते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का मप्र के लिए कोई योगदान नहीं है, यहां तक कि उन्‍होंने प्रधानमंत्रित्‍व कार्यकाल में भी कोई उल्‍लेखनीय तोहफा राज्‍य के वांशिंदों को नहीं दिया है।हमेशा राज्‍य के साथ सिर्फ दिखावा किया, लेकिन जनता के हित में कोई खास काम नहीं किया। इसी प्रकार के स्‍वर पूर्व राष्‍ट्रपति शर्मा के बारे में भी जहां-तहां सुनाई पड़ जाते हैं, लेकिन उन्‍होंने भोपाल को मेडिकल कॉलेज और भेल कारखाना दिलाने में अहम रोल किया है। इसके साथ ही उदयपुरा विधानसभा क्षेत्र में भी स्‍कूल और अस्‍पताल खुलवाये हैं। 
प्रदेश को मुख्‍यमंत्री फिर भी निराशा : 


       मप्र में 55 साल के सफर में एक दर्जन से  अधिक राजनेता राज्‍य के मुख्‍यमंत्री बन चुके हैं। इन मुख्‍यमंत्रियों के फेहरिस्‍त देखी जाये, तो इन मुख्‍यमंत्रियों ने प्रदेश हित में तो कई उल्‍लेखनीय निर्णय लिये, जो कि मील का पत्‍थर साबित हुए, यहां तक कि मुख्‍यमंत्री के सफर में ही उन्‍होंने देश में अपना नाम भी कमाया। इस कड़ी में उल्‍लेखनीय नामों में डीपी मिश्रा, श्‍यामाचरण शुक्‍ल, गोविंद नारायण सिंह, प्रकाश चंद्र सेठी, अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह, सुंदरलाल पटवा, बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान शामिल हैं। डीपी मिश्रा और अर्जुन सिंह को कांग्रेस की राजनीति में आधुनिक चाणक्‍य की संज्ञा से राजनीति में नबाजा गया। सिंह ने अपने मुख्‍यमंत्रित्‍व कार्यकाल में राज्‍य को ढेरों सौगातें दी। उन्‍होंने कई उल्‍लेखनीय काम किये हैं। सांस्‍कृतिक गतिविधियों का सिलसिला अर्जुन सिंह के मुख्‍यमंत्रित्‍व कार्यकाल में शुरू हुआ और भारत भवन का जन्‍म हुआ। गरीबों और पिछड़े वर्गों के लिए झुग्‍गी-झोपड़ी का मालिकाना हक, तेंदू पत्‍ता बोनस सहित आदि कार्य किये हैं, लेकिन वे भी सीधी और रीवा को विकास की मुख्‍यधारा में लाने में कहीं न कहीं पिछड़ ही गये। इसी प्रकार वर्तमान में कांग्रेस की राजनीति में विरोधियों को अपने बयानों से घायल करने वाले दिग्विजय सिंह ने भी 1993 से 2003 के बीच मप्र के मुख्‍यमंत्री रहे। इस दौरान पंचायती राज को नई ताकत दी पर राजगढ़ जिले के विकास में कोई खास काम नहीं कर पाये। आज भी यह जिला बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहा है न तो रोजगार मिल रहे हैं और न ही उद्योग धंधे खुल पाये हैं। 
भाजपा की तरफ से भी पांच मुख्‍यमंत्री बन चुके हैं जिसमें सुंदरलाल पटवा, कैलाश जोशी, उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान शामिल है। चौहान का वर्तमान कार्यकाल उल्‍लेखनीय कामों से भरा पड़ा है। उन्‍होंने अपने मुख्‍यमंत्रित्‍व कार्यकाल में सामाजिक संरचना के रूप में जो काम किया है वह अपने आप में उल्‍लेखनीय है जिसमें कन्‍यादान, लाडली लक्ष्‍मी, बेटी बचाओ अभियान, लोक प्रबंधन, बौद्व विश्‍वविद्यालय, हिन्‍दी विवि, तीर्थ दर्शन योजना आदि शामिल हैं। इन योजनाओं ने दिल्‍ली तक में धूम मचाई है पर यहां भी अफसोस होता है कि चौहान अपना गृह जिला सीहोर के विकास में उतनी रूचि नहीं ले रहे हैं जितनी उन्‍हें लेनी चाहिए। विकास के रूप में आज भी सीहोर जिला मॉडल के रूप में विकसित नहीं हो पाया है। सामाजिक कार्यकर्ता राजेंद्र कोठारी कहते हैं कि अगर चौहान सिर्फ सीहोर जिले को विकास का मॉडल स्‍थापित कर दें, तो अन्‍य जिले अपने आप विकसित होने लगेगे। इस जिले से पूर्व मुख्‍यमंत्री सुंदरलाल पटवा का भी खासा लगाव रहा है। आर्किटेक्‍ट के रूप में राजनीतिक सफर कर रहे पूर्व मुख्‍यमंत्री और वर्तमान में शिव सरकार में कैबिनेट मंत्री बाबूलाल गौर ने अपने मुख्‍यमंत्रित्‍व कार्यकाल के दौरान भोपाल के विकास में कोई कसर नहीं छोड़ी उन्‍हीं के कार्यकाल में विकास की दिशा में नये शौपान गड़ रहा है फिर भी राजधानी का जितना विकास होना चाहिए उतना नहीं हो पाया है। कुल मिलाकर राज्‍य को जिलों से मुख्‍यमंत्री मिले, लेकिन उन जिलों की तस्‍वीर और तकदीर आज भी नहीं बदली है। 
                                        ''जय हो मप्र की''

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

जातिवाद का जहर और सांप्रदायिकता का रोग फैला मप्र में


 
मध्‍यप्रदेश व जातिवाद-सांप्रदायिकता : स्‍थापना दिवस में 8 दिन शेष     
   भले ही राजनैतिक दल बार-बार दावा करें कि मप्र में जाति आधारित राजनीति नहीं होती है और न ही सांप्रदायिक तत्‍व हावी हैं पर जमीनी असलियत यह है कि जातिवाद का जहर गहराई तक प्रवेश कर गया है, जातियों के समूह अपने-अपने कुनवों को बढ़ाने में ताकत लगा रहे हैं। जाति आधारित सम्‍मेलनों की बाढ़ आ गई है जिसमें खुलकर जातिवाद को बढ़ावा देने की पैरवी की जाती है। इसके खिलाफ जो बोलता है वह जाति विरोधी माना जा रहा है। इसके विपरीत सांप्रदायिकता के रोग ने तो एक विकट रूप ले लिया है। राज्‍य में अमन-चैन से रहने वाले लोगों को तब पीड़ा और तकलीफ होती है, जब अमन के विरोधी छोटे-छोटे मुद्दों को भी सांप्रदायिक रंग देने में माहिर हैं। सांप्रदायिकता का जाल धीरे-धीरे उन इलाकों में फैल गया है जहां पर धर्मनिरपेक्ष ताकतें मजबूती से खड़ी थी, लेकिन वहां भी सांप्रदायिक ताकतों ने अपने पैर जमा लिये हैं। यह एक दिलचस्‍प पहलू यह है कि जिन ताकतों को सांप्रदायिकता के खिलाफ ताल ठोकर खड़े होना चाहिए वह अपने-अपने घरों में कैद हो गये हैं। विशेषकर विरोधी दल की भूमिका अदा कर रही कांग्रेस ने तो सांप्रदायिकता के खिलाफ अपने आपको बयानबाजी तक सीमित कर लिया है। यही हाल बामपंथी दलों का है, यह दल तो बयानजारी करने में भी कोताही बरततें हैं। यूं तो मप्र में बामपंथी दल भाकपा और माकपा हैं इन दलों की ताकत उंगलियों पर गिनी जा सकती है, लेकिन यह दल भी सांप्रदायिक तत्‍वों के सामने बौने साबित होते हैं। यही वजह है कि सांप्रदायिक तत्‍वों ने अपने-अपने ढंग से पैठ बनाने के रास्‍ते खोज लिये हैं। कभी-कभार मीडिया अपने आक्रमक तेवर दिखाते हुए सांप्रदायिक संगठनों को चुनौती देता नजर आता है जिस पर यह तत्‍व थोड़ा ठंडे पड़ जाते हैं अन्‍यथा सरकार और प्रशासन को आंखे दिखाने में तो इन्‍हें मजा आता है। प्रशासन जब पीछे पड़ता है, तो फिर इन तत्‍वों को पसीना भी आ जाता है। 
जातिवाद का फैलता जहर : 
          मध्‍यप्रदेश को जाति विहीन राजनीति का गढ़ कहा जाता था, लेकिन अब धीरे-धीरे जातिवाद का जहर भीतर तक प्रवेश कर गया है। राजनीतिक दल चुनाव के समय जाति आधार पर टिकटों का वितरण करने लगे हैं। यहां तक कि सांसद और विधायकगण अपने-अपने क्षेत्रों में उन जातियों को खुश करने के उपक्रम करते रहते हैं, जो उन्‍हें थोक में वोट दिलाते हैं। जातिगत समीकरण के तहत पार्टियों में पद बांटे जाने लगे हैं। दुखद पहलू तो यह है कि प्राईवेट सेक्‍टर में भी जातिवाद तेजी से पनप रहा है। कई जगह देखने में आता है कि एक ही जाति के लोगों को बढ़ावा देने के लिए तरह-तरह से दवाब बनाये जाते हैं। प्रदेश में ऐसा कोई सप्‍ताह नहीं गुजरता है जब जातिगत सम्‍मेलन न होते हो। इन सम्‍मेलनों में जाति को फोकस किया जा रहा है और हर तरह से लुभावने सपनों का जाल फेंका जाता है। फिलहाल तो जातिवाद के खिलाफ किसी स्‍तर पर कोई मोर्चा नजर नहीं आता है। 
सांप्रदायिकता का फैलता फन : 
       कभी-कभी लगता है कि मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तो मप्र को स्‍वर्णिम राज्‍य बनाने का सपना दिखाते हैं और इसके लिए वह लगातार प्रयास भी कर रहे हैं पर उनके इस अभियान पर पानी फेरने की कोशिश सांप्रदायिक ताकतें करती रहती हैं। राज्‍य में इन दिनों धीरे-धीरे सांप्रदायिक ताकतें अपने पैर फैला रही है। यह जरूर है कि दंगे पिछले साल की अपेक्षा इस साल कम हुए है, लेकिन सांप्रदायिक ताकतों ने तनाव के जरिये समाज में सांप्रदायिकता का जाल फैलाया था। तनाव फैलाना तो अब इन ताकतों के लिए बाये हाथ का काम हो गया है। इसके पीछे उनकी मंशा यह है कि तनाव के जरिये समाज में भय बैठा दिया जाये, तो वह विरोध न कर सकें। इसके चलते विकास का पहिया तो थमता ही है साथ ही जो पूंजी निवेश के लिए राज्‍य सरकार एड़ी-चोटी का जोर लगाती रहती है उसमें भी कामयाबी नहीं मिल पाती है। 
                                        ''जय हो मप्र की'' 

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

बूढ़ा होता मध्‍यप्रदेश और उसके हसीन सपने


  मध्‍यप्रदेश और सपनों का मायाजाल : स्‍थापना दिवस में 09 दिन शेष
           हमारे  मध्‍यवर्गीय समाज में एक बड़ी खामी है कि जैसे-जैसे व्‍यक्ति की उम्र का ग्राफ बढ़ता है तो लोगों की धारणा बदलने लगती है। बातचीत अक्‍सर 40 की उम्र से 50 की उम्र पार करते ही लोगों का नजरिया  बदला-बदला नजर आता है। हर नई सोच और ऊर्जा कितनी ही प्रदर्शित कर दी जाये लेकिन सामने वाले की टिप्‍पणी यही होती है कि अब तो बूढ़े हो रहे हो, अब क्‍या करोंगे। यही स्थिति मप्र के साथ बन गई है। यह राज्‍य 56 साल की उम्र पार कर रहा है, लेकिन इसके अपने हसीन सपने है, नई दुनिया बसाने का इरादा है। यह सच है कि जो राज्‍य उसके सामने अवतरित हुए वे आज विकास की दौड़ में मप्र से आगे निकल गये हैं। यहां तक कि वर्ष 2000 में बड़े भाई से अलग होकर छोटे भाई की भूमिका में आये छत्‍तीसगढ़ राज्‍य आज 12 साल बाद प्रतिव्‍यक्ति आय में भी मप्र से दो कदम आगे है। इसके साथ ही छग में बुनियादी सुविधाओं के लिए नागरिकों को रोज-रोज सड़कों पर नहीं आना पड़ रहा है। नये ढंग से राज्‍य को गढ़ा जा रहा है। इसके साथ ही मप्र से पहले स्‍थापित हुए राज्‍य गुजरात, पंजाब, हरियाणा, नई दिल्‍ली, गोवा सहित आदि विकास की अग्रिम पंक्ति में तेज दौड़ रहे हैं। हर दिशा में इन राज्‍यों ने अपना एक अलग मुकाम बना लिया है, लेकिन मप्र आज भी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहा है। यहां के अखबारों में नित-प्रति सड़कों का न होना, बिजली की हायतौबा मचाना, सरकारी स्‍कूलों में शिक्षकों का गायब होना, साक्षरता का प्रतिशत न बढ़ना, पीने के पानी के लिए एक-दूसरे की हत्‍या करना, कुपोषण, गरीबी, अन्‍याय, असमानता, सामाजिक मतभेद, दलित और आदिवासी को दरकिनार करना तथा बेरोजगारी जैसी अनगिनत समस्‍याएं फोकस होती हैं। नये सपने और उन्‍हें जमीन पर उतारने का ठोस इदारा राजनेताओं से गायब सा हो गया है। यह कहा जाने लगा है कि अब तो मप्र बूढ़ा होने लगा है, तब वह हसीन सपनों का जाल बिछा रहा है। निश्चित रूप से भले ही विकास की धारा में राज्‍य को पिछड़ा माना जाये, लेकिन जब नींद खुली तभी सबेरा मानना चाहिए। यह कहावत मप्र पर पूरी तरह से चरितार्थ हो रही है, क्‍योंकि राज्‍य विकास की दौड़ में अब तेजी से चल पड़ा है। जहां-तहां उद्योगों का जाल फैल रहा है, विकास दर के फलक पर हम लगातार आगे ही बढ़ रहे हैं यानि नये सपनों को लेकर मैदान में खुलकर आ गये हैं। निश्चित रूप से मप्र में प्राकृतिक संपदा से भरपूर है और उसके संसाधन भी उपलब्‍ध हैं। यही वजह है कि अब मप्र आर्थिक धरातल पर ताकतवर हो रहा है। राज्‍य में विकास की नई कहानी लिखी जा रही है, कोई ऐसा क्षेत्र बाकी नहीं है, जहां विकास पर नये-नये सपने न बुने जा रहे हो। गांव से लेकर शहरों में विकास के लिए योजनाएं बन रही हैं और उन्‍हें जमीन पर उतारा जा रहा है। मप्र को स्‍वर्णिम राज्‍य बनाने का संकल्‍प लिया जा चुका है। उद्योगों का जाल फैलाने की कोशिश हो रही है, लेकिन फिर भी राज्‍य के 50 जिलों में से 23 जिले उद्योगविहीन है मगर इसके बाद भी प्रदेश को आगे ले जाने की जिजीविषा लोगों में साफ तौर पर दिखती है। पूंजी निवेश के नाम पर बड़े-बड़े उद्योगपति प्रदेश में निवेश करने की इच्‍छा तो जाहिर कर रहे हैं, छोटे शहर और कस्‍बे बड़े आकार ले रहे हैं, शिक्षा के क्षेत्र में कॉलेज, स्‍कूल नये खुल रहे हैं, स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाओं का विस्‍तार हो रहा है, परिवहन सुविधाओं में विस्‍तार हुआ है यानि हर क्षेत्र में प्रगति दस्‍तक दे रही है बस इन सब कार्यों का संयोजन और नियोजन करने की आज नेतृत्‍व की जरूरत है।
मध्‍यप्रदेश दूसरे राज्‍यों में किस स्‍थान पर : 
    समय-समय पर मध्‍यप्रदेश के विकास को लेकर अन्‍य राज्‍यों से तुलना होती है, तो उसमें मप्र आज भी फिसड्डी है। 16 नवंबर, 2011 में हुए एक सर्वे के अनुसार मप्र सर्वांगीण विकास में अन्‍य राज्‍यों में 20वें स्‍थान पर है। 
  • सर्वांगीण प्रगति - 20वां स्‍थान 
  • खेती और किसान - तीसरा स्‍थान 
  • उपभोक्‍ता बाजार - 13वां स्‍थान 
  • शिक्षा का जाल - 19वां स्‍थान 
  • शासन करने की प्रक्रिया - 20वां स्‍थान 
  • स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाएं - 18वां स्‍थान 
  • बुनियादी ढाचा - 9वां स्‍थान 
  • औद्योगिक निवेश - 18वां स्‍थान 
  • वृहद अर्थव्‍यवस्‍था - 8वां स्‍थान 
यह सपने हमने देखे : 
  • प्रदेश को स्‍वर्णिम राज्‍य बनाने का इरादा 
  • विधानसभा में 74 संकल्‍प पारित हुए 
  • सामाजिक बदलाव की दिशा में एक कदम आगे बढ़े 
  • पूर्व राष्‍ट्रपति डॉ0 कलाम ने विकास के 11 सपने सुझाये 
पुराना मप्र  वर्ष 1956 से पहले : 
          वर्ष 1956 में मप्र की स्‍थापना हुई है, लेकिन इससे पहले मप्र राज्‍य अलग-अलग राज्‍यों में विभाजित था। इन्‍हें एक करके मप्र बनाया गया। इसमें अलग-अलग भाषा, संस्‍कृति, पहनावा, बोलचाल और रहन-सहन आज भी साफ झलकता है, लेकिन फिर भी मप्र आज देश का एक चमकता हुआ राज्‍य है। 
  1. महाकौशल - बालाघाट, छिंदवाड़ा, सिवनी, मंडला, नरसिंहपुर, जबलपुर, सागर, दमोह, होशंगाबाद, बैतूल, खंडवा। 
  2. पूर्व भोपाल राज्‍य - भोपाल, सीहोर, रायसेना 
  3. विंध्‍य प्रदेश - रीवा, सतना, सीधी, शहडोल, टीकमगढ, छतरपुर, पन्‍ना एवं दतिया। 
  4. मध्‍य भारत - भिंड, मंदसौर, मुरैना, धार, ग्‍वालियर, झाबुआ, गुना, खरगौन, शिवपुरी, राजगढ़, विदिशा, शाजापुर, देवास, उज्‍जैन, इंदौर, रतलाम। 
मध्‍यप्रदेश और आज : 
       मध्‍यप्रदेश आज तेजी से विकास की तरफ बढ़ रहा है संभाग, जिला, तहसील, नगर की संख्‍या में लगातार इजाफा भी हो रहा है। 
  • कुल जिले - 50 
  • संभाग - 10 
  • तहसील - 342
  • विकासखंड - 313 
  • आदिवासी विकासखंड - 89
  • नगर -476 
  • नगर निगम - 14 
  • नगर पालिका - 97 
  • नगर परिषद - 258
  • पंचायत 23,012
  • कुल आबाद गांव - 54,903 
  • मुख्‍य भाषा - हिन्‍दी 
  • क्षेत्रीय भाषा - बुंदेली, बघेली और निमाड़ी 
  • राजधानी - भोपाल
  • बड़े शहर - इंदौर, भोपाल, जबलपुर, ग्‍वालियर, रीवा, सतना 
                                   जय हो मध्‍यप्रदेश की

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

विकास की पटरी पर दौड़ नहीं पा रहे मप्र के शहर

 
मध्‍यप्रदेश और शहर : स्‍थापना दिवस में 10 दिन शेष
         56 साल का सफर पूरा कर रहे मध्‍यप्रदेश के शहर आज भी विकास की पटरी पर दौड़ नहीं पा रहे हैं, न तो आम आदमी की बुनियादी सुविधाएं मिल पा रही हैं और न ही अधोसंरचनाओं का जाल फैल पा रहा है। दुर्भाग्‍यपूर्ण स्थिति यह हो रही है कि न तो शहरों चमक बढ़ रही है और न ही रोजगार के रास्‍ते खुल रहे हैं।
यह सच है कि राज्‍य के बड़े शहरों में कांक्रीट के जंगल जरूर नजर आते है पर उसे विकास नहीं माना जा सकता, क्‍योंकि बिल्‍डरों ने जंगलों में कॉलोनियां बना दी है, तो लोग उसमें रहने को विवश है ही पर जिस तरह से बंगले और कॉलोनियां बनी हैं उस हिसाब से आम आदमी को सुविधाएं नहीं मिल रही हैं। मप्र में करीब आधा दर्जन ही बड़े शहर माने जाते हैं जिसमें इंदौर, भोपाल, जबलपुर, ग्‍वालियर और रीवा शामिल हैं। 
इन शहरों में भी सिर्फ विकास की दौड़ भोपाल और इंदौर में ज्‍यादा है, लेकिन उसका भी एक निर्धारित पैमाना है। सड़के चौड़ी की जा रही है पर उनका स्‍तर भी घटिया है। याता-यात के साधनों पर किसी का ध्‍यान नहीं है। आज भी पैदल और बसों पर चलने के लिए लोग मजबूर हैं। इंदौर को औद्योगिक नगरी के रूप में जाना जाता है जिसे मिनी मुंबई भी कहा जाता है, लेकिन तब भी विकास में जिस तेजी से आगे बढ़ना चाहिए वह गति अभी नहीं मिली है। इंदौर को आईटी सिटी के रूप में विकसित करने के लिए राज्‍य सरकार हरसंभव प्रयास कर रही है। यही वजह है कि इंफोसिस और टीसीएस जैसी कंपनियां आने की इच्‍छुक हुई हैं। अभी फिलहाल कंपनियां एक कदम आगे बढ़ी है। यह कंपनियां आने से इंदौर की छटा ही अलग हो जायेगी। निश्चित रूप से मप्र में महानगरों के रूप में सिर्फ इंदौर ही गिना जाता है बाकी अन्‍य शहर अभी महानगर की दौड़ में आये ही नहीं हैं। इन शहरों में भी बुनिया‍दी सुविधाओं का विस्‍तार करने की दिशा में न तो जनप्रतिनिधियों की कोई दिलचस्‍पी है और न ही प्रशासन ऐसी कोई योजनाएं बना रहा है। दुखद पहलू यह है कि इन शहरों में दस साल बाद कैसा विस्‍तार होगा इस पर कार्य योजना तक नहीं बन रही है। बार-बार हर शहर और कस्‍बे का मास्‍टर प्‍लान बनाने की बात होती है पर यह मास्‍टर प्‍लान इतनी धीमी गति से तैयार होते हैं कि उनकी समयावधि का पालन ही नहीं होता है। निश्चित रूप से शहरों के विकास का ब्‍लू प्रिंट सरकार के पास तैयार है, लेकिन वह जमीन पर नहीं उतर पा रहा है जिसके चलते प्रदेश के शहर अपने आप दम तोड रहे हैं और न ही कोई पहचान बना पा रहे हैं। 
                                      ''जय हो मप्र की''

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

मप्र स्‍थापना दिवस के कार्यक्रमों पर भी दर्द हो रहा कांग्रेस को

 मध्‍यप्रदेश और उत्‍सव : स्‍थापना दिवस में 11 दिन शेष
          जाने क्‍यों विपक्ष की भूमिका पिछले आठ सालों से अदा कर रही कांग्रेस पार्टी को अब ऐसा लगने लगा है कि प्रदेश में सरकार कोई भी काम करें, तो उसके खिलाफ बयानबाजी जरूर करना है, फिर भले ही जनता के बीच जाकर सरकार की नाकामियां न बताई जाये। यही वजह है कि कांग्रेस आक्रमक तेवर के साथ अपनी मौजूदगी अभी भी दर्ज नहीं कर पा रही है। दुखद पहलू तो यह है कि हमारे राज्‍य के स्‍थापना दिवस के कार्यक्रम को भी राजनीति का अखाड़ा बनाया जा रहा है। 
फिर उत्‍सव की बयार :
        राज्‍य अपनी स्‍थापना के 56 साल पूरे कर 57वें वर्ष में प्रवेश कर जायेगा। इस मौके पर परंपरागत ढंग से उत्‍साह और खुशिया मनाने के लिए सरकार तैयारियां शुरू कर दी हैं। वर्ष 2003 के बाद से मप्र में स्‍थापना दिवस कार्यक्रम मनाने का जो सिलसिला शुरू हुआ है, तो लगातार उसमें कडि़या जुड़ती ही जा रही हैं। 
80 के दशक से सांस्‍कृतिक उत्‍सव :
       यूं तो मप्र में सांस्‍कृतिक उत्‍सव का सिलसिला 80 के दशक में शुरू हुआ और 90 तक परवान पर चढ़ा। इसी कालखंड में भारत भवन की स्‍थापना हुई जिसने देशभर में अपनी एक अलग छवि बनाई। अलग-अलग संस्‍कृतियों और रहन-सहन को अंगीकार कर बने मप्र में स्‍थापना दिवस को लेकर कोई खास सरकार की तरफ से हलचल नहीं होती रही है, लेकिन भाजपा सरकार ने अपने राज्‍य के स्‍थापना दिवस को जोर-शोर मनाने का दौर शुरू किया। पहली बार राज्‍य का गीत बनाया गया, जो कि जहां-तहां गूंजता है। इस साल भी संस्‍कृति विभाग ने जाने-माने कलाकार ए0आर0 रहमान को उनकी 200 कलाकारों की टीम के साथ भोपाल में आमंत्रित किया है। इस कार्यक्रम के लिए अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर का मंच बनाया जा रहा है जिसमें एलसीडी स्‍क्रीन भी लगाई जायेगी। इस मौके पर आग के सोले, हाईड्रोलिक सिस्‍टम के बीच रहमान का कार्यक्रम शुरू होगा। सांस्‍कृतिक कार्यक्रम न सिर्फ भोपाल में हो रहे हैं, बल्कि पूरे प्रदेश के जिला मुख्‍यालयों पर भी भव्‍य कार्यक्रम आयोजित किये जायेंगे। संस्‍कृति मंत्री लक्ष्‍मीकांत शर्मा के अनुसार समारोह की शुरूआत मंत्रालय के वल्‍लभ भवन स्थित पार्क से होगी। जिसमें मुख्‍यमंत्री अपना संबोधन देंगे। पिछले वर्ष 2011 में बेटी थीम पर आयोजन किया गया था। जिसमें पार्श्‍व गायिका आशा भोंसले और फिल्‍म अभिनेत्री हेमा मालिनी का नृत्‍य कार्यक्रम भी हुआ था। पिछले वर्ष भी कांग्रेस ने इस कार्यक्रम का विरोध किया था और इस वर्ष भी कांग्रेस समारोह के विरोध में खड़ी हो गई है। कांग्रेस के मुख्‍य प्रवक्‍ता मानक अग्रवाल का कहना है कि इस कार्यक्रम के जरिये राज्‍य सरकार करोड़ रूपये सिर्फ कार्यक्रम पर कर रही है, जबकि इस राशि का उपयोग अन्‍य कार्यों पर किया जाना चाहिए। कांग्रेस का यह तर्क बाजिव है कि आज राज्‍य विभिन्‍न समस्‍याओं में डूबा हुआ है। 
समस्‍याएं हैं पर क्‍या उत्‍सव न मनाएं :
  जहां-तहां कुपोषण गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी जैसी समस्‍याएं गंभीर होती जा रही है वहीं शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य सेवाएं जैसी सुविधाएं भी लोगों को आसानी से नहीं मिल पा रही हैं। इसलिए उत्‍सव क्‍यों मनाया जाये, लेकिन पार्टी को यह भी सोचना चाहिए कि साल में एक बार हमारे राज्‍य का स्‍थापना दिवस मनाया जाता है, तो फिर इसमें कंजूसी क्‍यों बरती जाये। राज्‍य की अस्मियता, राज्‍य की पहचान और राज्‍य के प्रति लगाव की भावना विकसित करने के लिए साल में एक बार ऐसे कार्यक्रम होना निहायत आवश्‍यक है, क्‍योंकि महाराष्‍ट्र, यूपी, बिहार में तो अपने राज्‍य की स्‍थापना कार्यक्रम मप्र से भी ज्‍यादा जोर-शोर से मनाये जाते हैं। ऐसी स्थिति में विपक्ष को विरोध करने का अधिकार है, लेकिन स्‍थापना दिवस जैसे कार्यक्रम का विरोध करने से बचना चाहिए, क्‍योंकि राज्‍य के जन्‍म का उत्‍सव तो सबको मिलकर मनाना ही होगा। 
                                      ''जय हो मध्‍प्रदेश की''

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

दलित उत्‍पीड़न पर न राजनीतिक दल उत्‍तेजित होते हैं और न ही समाज में आक्रोश

          मध्‍यप्रदेश में विषम परिस्थितियों के बीच दलित वर्ग अपना जीवन-यापन कर गुजर बसर कर रहे हैं, लेकिन उन्‍हें कदम-कदम पर उत्‍पीड़न का सामना करना पड़ रहा है। न तो उत्‍पीड़न के खिलाफ राजनीतिक दल अपना गुस्‍सा दिखाते हैं और न ही सामाजिक सरोकार रखने वाले संगठन इस दिशा में सक्रिय होते हैं,जिसके चलते दलित वर्ग पर उत्‍पीड़न का सिलसिला थम ही नहीं रहा है। उत्‍पीड़न भी छोटी-छोटी बातों को लेकर किया जा रहा है। दुखद पहलू यह है कि पुलिस में शिकायत की जाती है, तो उत्‍पीड़न करने वाले दबंगों के हाथ सत्‍ता तक इस कदर जुड़े होते हैं कि उन पर कार्यवाही तो दूर की बात है, उनसे पूछताछ तक नहीं करती है। पुलिस और शासन के अधिकारी दबंगों के दबाव में काम करें यह तो समझ में आता है कि उनके अपने स्‍वार्थ होते हैं, लेकिन अगर राजनीति दल मुंह फेर लें, तो फिर क्‍या समझा जाये। भले ही सत्‍तारूढ़ दल से जुड़े दल इस विषय पर कोई बात न करें, लेकिन कम से कम उत्‍पीड़न रोकने की दिशा में कोई कदम से उठा सकते हैं, लेकिन ऐसे प्रयास होते दिखते नहीं हैं। वही दूसरी ओर जिन दलों को विपक्ष की राजनीति करने का जनता ने मौका मुहैया कराया है, अगर वे भी दलित उत्‍पीड़न पर मुंह मोड़ लें, तो फिर बेचारा दलित समाज चुपचाप अत्‍याचार सहने के अलावा क्‍या करेंगा। 
दलित उत्‍पीड़न और मप्र - 
        राज्‍य में दलित उत्‍पीड़न को लेकर घटनाएं तो आये दिन मीडिया के जरिये सामने आती ही रहती हैं। राज्‍य सरकार दलित वर्ग के उत्‍थान के लिए नये-नये सपने दिखा कर ढेरो योजनाएं चलती है। यह सच है कि उत्‍पीड़न रोकने के लिए सरकार की तरफ से अजा थाने भी कार्यरत हैं, लेकिन इन थानों में संसाधनों का अभाव होने के कारण वह भी जैसी कार्यवाही करना चाहिए, वह नहीं कर पाती है। दबंग और सवर्ण वर्ग का एक आरोप बार-बार सुनने को मिलता है कि दलित वर्ग झूठी शिकायतें करता है, लेकिन अगर वह शिकायतें झूठी करता है तो उसकी जांच कर कार्यवाही की जानी चाहिए पर मप्र में तो ऐसा सप्‍ताह भर में कोई दिन होता होगा, जब राज्‍य के किसी हिस्‍से में दलित वर्ग पर अत्‍याचार की घटनाएं मीडिया में फोकस न होती हों। इन घटनाओं पर विराम न लगने की एक बड़ी वजह राजनीतिक निष्क्रियता है। अगर राजनैतिक चेतना इन मामलों को लेकर सक्रिय हो जाये, तो उत्‍पीड़नों की घटनाओं को रोका जा सकता है, पर राजनीतिक दल तो अपने वोटों के गुणा-भाग में लगे रहते हैं उन्‍हें दलित उत्‍पीड़न से कोई सरोकार नहीं है इसीलिए उत्‍पीड़न की घटनाएं लगातार बढ़ती ही जा रही हैं। 
                                    जय हो मप्र की