जब-जब किसी के पेट में दर्द होता है, तो उसके इलाज के लिए वह डॉक्टर की तरफ भागता है। डॉक्टर राहत भी देता है, लेकिन अगर बीमारी का राज कुछ और हो, तो फिर उसके रास्ते भी और तलाशे जाते हैं। आजकल भाजपा में कुछ-कुछ ऐसा ही हो रहा है, जो नेता लंबे समय से मप्र भाजपा संगठन के कामकाज से दरकिनार होकर अपने बंगलों में कैद हो गये थे, अचानक उनकी याद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेशाध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर को याद सताने लगी है। ऐसा नहीं है कि उनके बिना काम नहीं चलेगा, लेकिन चुनावी समर में एक हाथ और जुड़ जाये, तो ताकत ही मिलती है। इसी केंद्र बिन्दु पर चौहान काम कर रहे हैं और वे अब लगातार उन लोगों से संवाद कर रहे हैं, जो कि घर बैठेकर अपने-अपने काम में मसगूल हो गये थे। पहली शुरूआत तो संगठन में पांच चुनाव समितियां का गठन करके यह बताने की कोशिश की है कि हम किसी को भूले नहीं हैं। यही वजह है कि उसमें भी पूर्व केंद्रीय मंत्री विक्रम वर्मा को भाजपा संगठन एक तरह से भूल-सा गया था, वे धार और भोपाल में अपने निवास तक सिमटकर रह गये थे, लेकिन अब उन्हें घोषणा पत्र समिति का संयोजक बनाया गया है यह अपने आप में चौंकाने वाला कदम है। इसी प्रकार अन्य समितियों में पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल, जयश्री बनर्जी आदि के नाम भी पहली बार किन्ही समितियों में देखे गये हैं। पटेल को भाजपा में लाने की विशेष मुहिम चौहान ने चलाई थी और वे जनशक्ति पार्टी को छोड़कर भाजपा में शामिल हो गये थे। इसके बाद उन्हें किसी ने याद नहीं किया और वे एक मजदूर संगठन का काम देख रहे थे। इसी प्रकार एक और नेता जो लंबे समय से उपेक्षित थे अनिल माधव दबे उनकी भी यादव सरकार और संगठन को आने लगी है। न सिर्फ मुख्यमंत्री ने स्वयं जाकर दबे से मुलाकात की, बल्कि आधे घंटे तक 13 मई, 2013 को आधे घंटे तक भोपाल में विस्तार से विचार-विमर्श किया। संकेतों पर विश्वास करें, तो दबे को चुनाव प्रबंधन का गुरू माना जाता है। वर्ष 2003 में उन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गई थी और वे जाबली नामक एक केंद्र के मुखिया बनकर पूरे राज्य में चर्चा के विषय बने हुए थे। इसी प्रकार वर्ष 2008 में भी उन्हें चुनाव प्रबंधन का काम सौंपा गया था। अब फिर से उन्हें चुनाव प्रबंधन का काम देने पर विचार-विमर्श किया जा रहा है। इसीलिए चौहान ने उनसे उनके निवास पर पहुंचकर चर्चा की है। कुल मिलाकर भाजपा में जब जरूरत होती है, तभी नेता को याद किया जाता है। ऐसा अब नेताओं को भी आभास होने लगा है, अन्यथा कई नेता वर्षों अपने बंगलों में कैद रहते हैं और उन्हें पार्टी याद तक नहीं करती है, पर जब जरूरत होती है, तो पार्टी याद करने पहुंच जाती है। अब यह नेताओं को तय करना है कि वे संगठन के लिए प्रतिवद्व हैं अथवा अपने नेताओं के लिए।
''मप्र की जय हो''
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