गुरुवार, 27 जून 2013

भींख मांगने पर विवश दलित महिला सरपंच

       बार-बार दलित वर्ग को मुख्‍यधारा में लाने के बड़े-बड़े सपने राज्‍य सरकार दिखाती है। इसके बाद भी दलित वर्ग जस का तस है। कहीं-कहीं दलितों के जीवन में बेहतर बंयार आई है, लेकिन इसका प्रतिशत बेहद कम है। इससे विपरीत स्थितियां यह है कि आज भी राज्‍य में दलितों का उत्‍पीड़न अनवरत जारी है। न तो उनकी सुनवाई थानों में होती है और न ही जिला प्रशासन गौर करता है। जब ज्‍यादा शोरगुल मचता है, तब प्रशासन का ध्‍यान आकर्षित होता है। राज्‍य सरकार ने पंचायत चुनाव में दलित वर्ग को आरक्षण तो दे दिया और उस वर्ग की महिला सरपंच भी चुन ली गई, लेकिन अधिकार के नाम पर सिर्फ झुन-झुन पकड़ाया गया। इसका दुखद परिणाम यह हुआ कि कई महिला सरपंच तो अपने घरों में कैद होकर रह गई और जो सचिव ने कह दिया उसी पर अगूंठा लगाया जा रहा है1 ऐसी भी महिला सरपंच है, जो कि सरपंच बनने के बाद उन्‍हें नहीं मालूम है कि उनके क्‍या अधिकार है और उन्‍हें क्‍यों चुना गया है। मालवांचल के दमोह जिले में एक दलित महिला सरपंच भीख मांगकर अपने परिवार का गुजर-बसर कर रही है। यह महिला सरपंच दमोह जिले के हटा जनपद क्षेत्र की ग्राम पंचायत बछामा की दलित महिला सरपंच रजनी बंसल है। इस गांव की आबादी 1500 है और यह दमोह जिले से 75 किमी दूर स्थित गांव है। इस गांव के लोग रोटी-रोटी के लिए वन संपदा और काश्‍तकारी पर निर्भर है। महिला सरपंच अपने छोटे बच्‍चों के पेट भरने के लिए सुबह से भींख मांगने के लिए गांव में निकल जाती है और भींख मांगकर ही अपने परिवार का गुजर बसर कर रही है। वह अशिक्षित है, तो उन्‍हें मालूम भी नहीं है कि आखिरकार उन्‍हें सरपंच क्‍यों बनाया गया है और उनके क्‍या अधिकार हैं। अब तो सरपंच के पति संतोष से भी गांव वाले मजदूरी नहीं कराते हैं। इस विषम परिस्थिति में दलित महिला सरपंच के सामने गांव भर में भीख मांगने के अलावा कोई रास्‍ता नहीं है। यही वजह है कि दलित महिला सरपंच दिन में भींख मांगकर अपना गुजर बसर कर रही है, क्‍योंकि उसे रोजगार भी नहीं मिल रहा है। इस दलित महिला सरपंच का घर भी टूटा-फूटा है, बिस्‍तर के नाम पर कुल तीन कंबल है, वे भी दूसरों ने दया दिखाकर दिये हैं। रहने के लिए छोटा-मोटा घर है, जो झोपड़ीनुमा हैं। दलित महिला सरपंच रजनी बंसल कहती हैं कि सरकारी फरमान के चलते राष्‍ट्रीय पर्व के दौरान तिरंगा झंडा तो उन्‍हीं ने फहराया था, लेकिन जो लोग कार्यक्रम में मौजूद थे उनके साथ कुर्सी पर नहीं बैठाया। दुखद पहलू यह है कि हटा जनपद पंचायत के सीईओ आनंद शुक्‍ला को यह मालूम है कि दलित महिला सरपंच भींख मांगकर गुजारा कर रही है और उन्‍होंने उसे स्‍कूल में खाने बनाने की जिम्‍मेदारी दी थी, लेकिन इस काम से भी गांव वालों ने दूर ही रखा। इसके चलते महिला सरपंच भीख मांगकर अपने परिवार का जैसे-तैसे पेट भरने को विवश है। 
आखिर वंचित के साथ कब तक अन्‍याय : 
       यह समझ से परे है कि मप्र में वंचित और उपेक्षित दलित वर्ग के साथ उत्‍पीड़न की प्रक्रिया लगातार जारी है। किसी न किसी माध्‍यम से दलित वर्ग के साथ अन्‍याय हो रहा है। न तो दलितों को अभी भी मंदिर में प्रवेश आसानी से मिल रहा है और न ही दलित वर्ग के नौजवान शादी के दौरान घोड़ी पर संवारी करके अपने मुहल्‍ले में शान से बारात भी नहीं निकाल पा रहे हैं। महिला सशक्तिकरण के नाम पर दलित महिलाओं को सरपंच बनाने की जिम्‍मेदारी तो दे दी गई, लेकिन चुनावी प्रक्रिया पूरी होने के बाद दलित वर्ग को ऐसे दरकिनार किया जाता है, जैसे दूध से मक्‍खी निकाल दी गई हो। मप्र में यह प्रसंग दलित महिला सरपंच का इकलौता नहीं है, बल्कि राज्‍य के हिस्‍से में कई दलित महिला सरपंच मजबूरी में मजदूरी करके अपना गुजर-बसर कर रही हैं और जब पंचायत का सचिव चाहता है, तब वहां हस्‍ताक्षर कर देती हैं। इसका दुखद पहलू यह है कि पंचायत एवं ग्रामीण विकास के अधिकारी ग्रामीण क्षेत्र के दौरे पर होते हैं, तो वे यह पता करने की कोशिश ही नहीं करते हैं कि आखिरकार महिला प्रतिनिधि कैसे काम कर रही हैं। वे तो निर्माण कार्य का आंकलन करते हैं और कहीं नदी किनारे पिकनिक मनाते हैं और वापस भोपाल आकर अपनी रिपोर्ट सौंप देते हैं। इसी के चलते लगातार दलित वर्ग की महिलाएं उत्‍पीड़न की शिकार हो रही हैं, जिसे कोई रोक नहीं पा रहा है। न तो राजनीतिक संगठन और न ही स्‍वयंसेवी संगठन इस पर गौर कर रहे हैं। 
                                   ''मप्र की जय हो''

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

EXCILENT BLOG